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Saturday, April 05, 2014

भर्तृहरि नीति शतक-रोजी रोटी के चक्कर में ज्ञान लुप्त हो जाता है(bhartrihari neeti shatak-roji roti ke chakkar mein gyan lupt ho jaata hai)




      आधुनिक समय में जितना आर्थिक तथा विकास ने अपना बृहद स्वरूप दिखाया है वहीं नैतिक तथा चारित्रिक रूप से विनाश भी उससे कम नहीं हुआ  है। धन और भौतिक सुविधाओं की अतिउपलब्धता ने आदमी को न केवल शरीर बल्कि मस्तिष्क से भी आलसी बना दिया है और कभी कभी तो ऐसे लगता है कि जैसी मानव सभ्यता विवेकशून्य हो रही है। मनुष्य का मन उसे भटकाता है। अगर आदमी महल में है तो मन उसे झौंपड़ी की तरफ आकर्षित करता है और वह झौंपड़ी में है तो महल पाने का ख्वाब देखता है। कहने का तात्पर्य है कि मन असीमित विचारों वाला है और वही मनुष्य को इधर उधर घुमाता और भटकाता भी है। मगर आदमी ने अपने आपको सीमाओं में कैद कर लिया है। न वह केवल वैचारिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी कम भी मेहनत करता हैं।  सच बात तो यह है कि मनुष्य की जिन गुणों के कारण अन्य जीवों से भिन्नता दिखती थी वह अब एक तरह से तुप्त हो रहे हैं| एक तरह से मनुष्य पशु और पक्षियों जैसे व्यवहार कर रह है जो कि जीवन में भोग तक ही अपने दैहिक सक्रियता दिखाते हैं|


भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमश्यनं धात्रा मरुत्कल्पितं
व्यालानां पशवस्तृणांकुरभुजस्तुष्टाः स्थलीशायिनः
संसारार्णवलंधनक्षमधियां वृत्तिः कृता सां नृणां
तामन्वेषयतां प्रर्याति सततं सर्व समाप्ति गुणाः

            हिंदी में भावार्थ- परमात्मा ने सांपों के भोजन के रूप में हवा को बनाया जिसे प्राप्त करने में उनको   बगैर हिंसा और विशेष प्रयास किए बिना प्राप्त हो जाती है। पशु के भोजन के लिए घास का सृजन किया और सोने के लिए धरती को बिस्तर बना दिया परंतु जो मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसकी रोजीरोटी ऐसी बनायी जिसकी खोज में उसके सारे गुण व्यर्थ चले जाते हैं।

                  आधुनिक  काल में इंसान बस धन,दौलत और प्रतिष्ठा के संचय में ही लिप्त हो गया है। उसका मन उसे कहीं निष्काम कर्म या निष्प्रयोजन दया के लिये प्रेरित भी करे तो वह तैयांर नहीं होत्ता  क्योंकि उसक मस्तिष्क की नस नारियाँ  अब केवल सीमित दायरे में ही कार्य करती हैं। ऐसे में लोगों का मानसिक तनाव बढ़ रहा है पर जिन लोगों को ज्ञान है वह संतोषी सदा सुखी की नीति पर चलते हुए कुछ ऐसे काम भी करते हैं जिनसे मन को प्रसन्नता हो। संचय करने वालों की हालत यह है कि उन्होंने इतना कमा लिया है कि उनकी सात पीढि़यां भी बैठकर खायें पर वह अपने जीवन में धनार्जन करने के अलावा उन्होंने कुछ सीखा ही नहीं है ऐसे में उनका मन उन्हें इतना भटकाता है कि उनका पूरा जीवन व्यर्थ जाता है। इस तरह उनके जो स्वाभाविक गुण होते हैं वह व्यर्थ हो जाते हैं। न वह अपने जीवन में भगवान की भक्ति कर पाते हैं न ही उनको कोई ज्ञान प्राप्त होता है। अध्ययन,चिंतन,श्रवण और मनन के जो गुण उनमें रहते हैं वह कभी उनका उपयोग नहीं कर पाते|
      जिन लोगों को लगता है कि जीवन को केवल भोग तक रखना ठीक नहीं हैं उन्हें अपना प्रात: का समय योग साधना तथा भगवन स्मरण में लगाना चाहिए|

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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