विश्व में अनेक प्रकार के आदर्शवाद प्रचलित हैं जिसमें
मानव समाज को एक व्यवस्थित ढंग के संचालन के लिये प्रणालियां बताई जाती है। सबसे
मजे बी बात यह है कि हर मनुष्य को देवता बनाने का प्रयास अनेक विचाराधाराओं के
ठेकेदार है। जबकि सच्चाई यह है कि एक बार मनुष्य में बाल्यकाल में जो संस्कार आ
गये फिर उनसे वह मुक्ति नहीं पा सकता। वह अपने स्वभाव के अनुसार ही संगत का चुनाव
करता है तथा वैसे ही उसका खानपान भी हो जाता है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के
अनुसार यह माना जाता है कि मानव अपने स्वभाव के अनुसार ही विषयों का चयन करता है
और कालांतर में वही विषय उसके मस्तिष्क तथा निजी व्यवहार को प्रभावित करता हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि___________________________दीपो भक्षयते थ्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्षयतेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा।।
हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह दीपक अंधेरे को खाकर काजल को उत्पन्न करता है वैसे ही इंसान जिस तरह का अन्न खाता है वैसे उसके विचार उत्पन्न होते हैं और उसके इर्दगिर्द लोग भी वैसे ही आते हैं। उनकी संतान भी वैसी ही होती है।अधमा धनमिच्छन्ति धनं माने च मध्यमा।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-अधम केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम पुरुष धन और मान दोनों की इच्छा करता है किन्तु उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हुए अपन कर्म करता है। उसके लिये मान ही धन है।
भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के सिद्धांत एक
तरह का दर्पण होते है जिसमें हर इंसान
अपने चरित्र का चेहरा देख सकता है। केवल धन की कामना पूरी करने के लिये कोई भी कार्य करने
के लिये तैयार होना निम्नकोटि होने का प्रमाण है। कहने को तो सभी कहते हैं कि यह पेट के लिये कर रहे हैं पर जिनके
पास वास्तव में धन और अन्न का अभाव है वह आजकल किसी अपराध में नहीं लिप्त दिखते जितने धन धान्य से
संपन्न वर्ग के लोग बुरे कामों में व्यस्त हैं। धन का आकर्षण लोगों को लिये इतना है कि वह
उसके लिये
अपना धर्म बदलने
और बेचने के लिये तैयार हो जाते हैं। उनके लिये मान और अपमान का अंतर नहीं रह जाता। आजकल शिक्षित और
सभ्रांत वर्ग के लोगों ने यह मान्यता पाल ली है कि धन से सम्मान होता है और वह
स्वयं भी निर्धनों से घृणा करते हैं। सच बात तो यह है कि अधम प्रकृति के लोग
धन प्राप्त कर उच्चकोटि का दिखने का प्रयास करते हैं।
समाज में
अनैतिक धनार्जन की बढ़ती प्रवृति ने नैतिक ढांचे को ध्वस्त कर दिया है और जिस वर्ग के लोगों पर समाज का मार्गदर्शन करने का
दायित्व है
वही कदाचार और ठगी में लगे हुए हैं। परिणामतः उनके इर्दगिर्द ऐसे ही लोगों का समूह
एकत्रित हो जाता है और उनकी संतानें भी अब ऐसे काम करने लगी हैं जो पहले नहीं
सुने जाते थे। नयी पीढ़ी की बौद्धिक और चिंतन क्षमता का हृास हो गया है और कहीं पुत्र तो कहीं पुत्री ही माता पिता पर
दैहिक आक्रमण के लिये आरोपित हो जाती है। नित प्रतिदिन समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर ऐसे
समाचार आते हैं जिसमें संतान ही उस माता पिता को तबाह कर देती है जिसकों उन्होंने
जन्म दिया है।
ऐसे में ज्ञानी लोगों को यह ध्यान रखना चाहिये कि
जो धन वह कमा रहे हैं उनका स्त्रोत पवित्र हो। अल्प धन होने से कोई समस्या नहीं
है क्योंकि चरित्र से सम्मान सभी जगह होता है पर बेईमानी और ठगी से कमाया
गया धन अंततः स्वयं के लिये कष्टदायी होता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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