इस संसार में मनुष्य के लिये हाथों से प्रत्यक्ष रूप में धनार्जन, आंख से सुंदर दृश्य का दर्शन, मुख से भोजन, जिव्हा से वाचन और कान से मधुर स्वर का श्रवण करना सरल
काम है। इन्हें कोई भी कर सकता है। हमारी
इंद्रियों को हमेशा ही बाह्य विषय आकर्षित करते हैं पर अंततः थका भी देते हैं।
सांसरिक विषयों से परे होने के बाद ज्ञान
साधना करने पर इन इंद्रियों और विषयों का संयोग
वास्तविक रूप से समझ मेें आता है।
अगर हम बाह्य विषयों की बात करें तो उनके साथ संबंध हमेशा ही विष का
निर्माण करता है और जब तक हम उसका विसर्जन न करें तब तक मन परेशान रहता है। जिस
तरह हम पेट में भोजन तथा पानी उदरस्थ करते हैं पर वह अंततः निष्कासन द्वारों से
गंदा होकर ही निकलता है। उसी तरह अन्य विषयों का भी यही हाल है। हम सुंदर दृश्य
देखते हैं पर थक जाते हैं। फिर विराम के बाद वही दृश्य जब दोबारा नहीं दिखता तब
निराशा होती है। उसी तरह कोयल का मधुर स्वर सुनने की आदत होने पर जब वह नहीं सुनाई
देता तब कान खालीपन का अनुभव करते हैं।
उसी तरह जब हमें हाथों से प्रत्यक्ष धन कमाने का अभ्यास हो जाता है तब
सेवानिवृत्ति या व्यवसाय से प्रथक होने पर फिर कहीं दूसरी जगह धन कमाने की इच्छा
होती है।
यह इच्छायें मनुष्य की देह को जिंदा रखती हैं पर उसकी आत्मा को मरने के
लिये विवश भी करती है। सबसे सरल लगने वाले
यह काम हमेशा ही कठिनाई में डाले रहते हैं।
योग साधना, ध्यान,
मंत्रजाप तथा एकांत में मौन बैठकर
चिंत्तन करने वाले काम अत्यंत कठिन लगते हैं पर उनसे जो अमृत पैदा होता है उसकी
अनुभूति करने वाले बहुत कम लोग दिखते हैं। सच तो यह है कि हाथ से कमाने की अपेक्षा
त्याग करना, आंख को खोलकर हमेशा
ही बाह्य दृश्य देखने की अपेक्षा ध्यान लगाना, मुख से भोजन में स्वाद का त्याग, कान से अपने अंदर की सुनना, और जीभ से बोलने की अपेक्षा मौन रहना अत्यंत
दुष्कर लगता है पर सच यही है कि मनुष्य में उस अध्यात्मिक शक्ति का निर्माण इन्हीं
कठिन कामों से होता है जो जीवन को कलात्मक रूप से रहने का अनुभव देती है।
अक्सर हमारे अनेक कथित गुरु विषयों का त्याग करने की बात करते हैं पर इसका
आशय वह स्वयं ही नहीं जानते। सच तो यह है कि उन्होंने स्वयं ही विषयों का त्याग
नहीं किया होता क्योंकि मनुष्य देह के रहते यह संभव नहीं है। देह के साथ इंद्रियां हैं तो बाह्य विषयों से संपर्क
किये बिना उनका प्रसन्न रहना संभव नही है।
इंद्रियों अपना काम करती हैं तो करने दीजिये पर विषयों में मन को लिप्त
नहीं करना चाहिये। हाथ से काम करने पर मिलने वाले धन के रूप में लाभ को फल नहीं
कहा जा सकता बल्कि वह तो कर्म का ही विस्तार है।
आप कहीं से धन लेकर अपने पास नहीं
रखते बल्कि उसे अपने अन्य सांसरिक कर्मों पर व्यय करते हैं।
एक सज्जन ने एक ज्ञानी व्यक्ति से कहा-‘‘जब तुम ज्ञान की बात करते हो तो यह बताओ यह नौकरी
क्यों करते हो? तुम्हें
निष्काम कैसे कहा जा सकता है क्योंकि तुम
इसका वेतन पाते हों?’’
उस ज्ञानी ने जवाब दिया कि-‘‘यह वेतन लेना एक तरह से कर्म ही है। हाथ से धन लेकर मुझे यह कहीं दूसरी
जगह खर्च करना है। अपनी देह के साथ ही
अपने परिवार का भी पालन पोषण करना है। यह
वेतन मेरे मन को प्रसन्नता नहीं देता बल्कि यह कर्म की बाध्यता है कि इसे लेकर में
दूसरा कर्म करूं। पेट पालन फल नहीं होता वरन् यह दायित्व है ताकि में अपनी देह से
भक्ति के साथ ही ज्ञानार्जन कर सकूं।’’
संसार में रहते हुए अनेक पारिवारिक समस्याओं से हमें जूझना होता है। उनकी
निपटने पर हम यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि हमने फल पा लिया तो यह अज्ञान का
प्रमाण है। पैसा पाया तो वह खर्च करेंगे या बैंक खाते जमा कर देंगे। हमारे खाते
में रकम चमकती दिखेगी पर बैंक दूसरों को ऋण देकर उन्हें कृतार्थ करेगा। बेटे की शादी पर नाचते हैं पर बाद में पता चलता
है कि वह तो बहु का होकर रह गया। तब चिढ़ते
हैं पर यह भूल जाते हैं कि विवाह स्त्री पुरुष का नया जन्म होता है और प्राकृत्तिक
रूप से दोनों एक दूसरे के निकट आते हैं तब पुराने जन्म के रिश्ते उन्हें निभाने का
अवसर उनके पास नहीं रह जाता। बेटी की शादी
होने पर उसे सुयोग्य वर मिला यह देखकर हम समझते हैं कि हमारा जीवन धंन्य हो गया।
यह भूल गये कि अब वह परायी हो गयी और उसे अब अपनी गृहस्थी देखनी होगी। आजकल तो
सीमित संतान का समय है इसलिये लोगों को अपने बच्चों के विवाह आदि की प्रसन्नता
क्षणिक ही रह पाती है। कुछ समय बाद पता
लगता है कि परिवार की जिम्मेदारी पूरी करने वाले दंपत्ति को बाकी जीवन अकेले ही
बिताना होगा। हम शहरी समाज में ऐसे अनेक दंपत्ति देख सकते हैं जो अकेले हो गये
हैं।
ऐसे में अध्यात्मिक ज्ञान होने वाले लोग ही अपने जीवन में सहजता अनुभव कर
सकते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान होने पर एक ही व्यक्ति दो और दो चार हो जाते हैं। आत्मा और मन दो तत्व इस देह का भाग हैं।
अगर मन अकेला उपयोग करता है तो वह थक जाता है और अगर आत्मा इसमें साथ देती
है तो दोनों साथी हो जाते हैं। योग साधना,
ध्यान, मंत्र जाप तथा प्रातःकाल सैर करने वाले लोगों के चेहरे
पर कभी ऐसे तनाव नहीं दिखते जो आलस्य के साथ जीवन बिताने वालों पर दिखते हैं। इस जीवन की सार्थकता समझने वाले कभी अपना समय
फालतु बातों में नष्ट नहीं करते वरन् प्रतिदिन उनका जन्म तथा मोक्ष होता है। योग
साधना से जब आत्मा का इंद्रियों से संपर्क होता है तो वह शक्तिशाली हो जाती हैं और
उन्हें विषयों के सहज तथा असहज रूप का आभास हो जाता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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