हमारी इंद्रियां हमेशा बाहर ही सक्रिय रहने को
लालायित रहती है। विशेष रूप से हमारी
आंखें हमेशा ही दृश्य देखने को उत्साहित रहती है।
हम जिन दृश्यों को देखते हैं वह दरअसल प्रकृति में विचर रहे विभिन्न जीवों
की लीला है। जिनकी उत्पति भोग तथा मुक्ति
के लिये होती है। कुंछ लोग अपने भोग करने के साथ ही उसके लिये साधन प्राप्त करने
का उपक्रम करते हैं तो उनकी यह सक्रियता दूसरे मनुष्य के लिये दृश्य उपस्थिति करती
है। कुछ लोग मुक्ति के लिये योग साधन आदि
करते हैं तो भी वह दृश्य दिखता है। मुख्य
विषय यह है कि हम किस प्रकार के दृश्य देखते हैं और उनका हमारे मानस पटल पर क्या प्रभाव पड़ता है इस पर विचार करना चाहिये।
हम कहीं खिलते हुए फूल देखते हैं तो हमारा मन खिल उठता है। कहंी हम सड़क पर
रक्त फैला देख लें तो एक प्रकार से तनाव पैदा होता है। यह दोनों ही स्थितियां भले
ही विभिन्न भाव उत्पन्न करती हैं पर योग साधक के लिये समान ही होती है। वह जानता है कि ऐसे दृश्य प्रकृति का ही भाग
हैं।
हम देख रहे हैं कि मनोरंजन व्यवसायी कभी सुंदर कभी वीभत्य तो कभी हास्य के
भाव उत्पन्न करते हैं। वह एक चक्र बनाये रखना चाहते हैं जिसे आम इंसान उनका ग्राहक
बना रहे। पर्दे पर फिल्म चलती है उसमें कुछ लोग
अभिनय कर रहे हैं। वहां एक कहानी
है पर उसे देखने वाले व्यक्ति के हृदय में
पर्दे पर चल रहे दृश्यों के साथ भिन्न भिन्न भाव आते जाते हैं। यह भाव इस तरह आते
हैं कि जैसे वह कोई सत्य दृश्य देख रहा है।
ज्ञानियों के लिये पर्दे के नहीं वरन् जमीन पर चल रहे दृश्य भी उसके मन पर
प्रभाव नहीं डालते। वह जानता है कि जो
घटना था वह तय था और जो तय है वह घटना ही है।
सांसरिक विषयों के जितने प्रकार के
रस हैं उतने ही मनुष्य तथा उसकी सक्रियता से उत्पन्न दृश्यों के रंग हैं।
पतंजलि योग शास्त्र में कहा गया है कि-----------प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थ दृश्यमहिन्दी में भावार्थ-प्रकाश, क्रिया तथा स्थिति जिनका स्वभाव है भूत वह इंद्रियां जिसका प्रकट स्वरूप है और भोग और मुक्ति का संपादन करना ही जिसका लक्ष्य है ऐसा दृश्य है।
हम दृश्यों के चयन का समय या स्थान नहीं तय कर सकते पर इतना तय जरूर कर
सकते हैं कि किस दृश्य का प्रभाव अपने दिमाग पर पड़ने दें या नहीं। जिन दृश्यों से मानसिकता कलुषित हो उनकी
उपेक्षा कर देनी चाहिये। हृदय विदारक दृश्य कोई शरीर का रक्त नहीं बढ़ाते। हमें समाचारों में ऐसे दृश्य दिखाने का प्रयास
होता है। आजकल सनसनी ऐसे दृश्यों से फैलती है हो हृदय विदारक होती हैं। लोग उसे
पर्दे पर देखकर आहें भरते हैं। अखबारों में
ऐसी खबरे पढ़कर मन ही मन व्यग्रता का भाव
लाते हैं। अगर आदमी ज्ञानी नहीं है तो वह
यंत्रवत् हो जाता है। मनोरंजन व्यवसायी तय करते हैं कि इस यंत्रवत खिलौने में कभी
श्रृंगार, तो कभी हास्य कभी
वीभत्स भाव पैदा कर किस तरह संचालित किया जाये।
आनंद वह उठाते हैं यंत्रवत् आदमी सोचता है कि मैने आनंद उठाया। इस भ्रम में
उम्र निकल जाती है। चालाक लोग कभी स्वयं इन रसों में नहीं डूबते। ठीक ऐसे ही जैसे
हलवाई कभी अपनी मिठाई नहीं खाता। फिल्म और धारावाहिकों में अनेक पात्र मारे गये पर
उनके अभिनेता हमेशा जीवित मिलते हैं मगर उनके अभिनय का रस लोगों में बना रहता
है। संसार के विषयों और दृश्यों में रस है पर ज्ञानी उनमें डूबते नहीं यही उनके
प्रतिदिन के मोक्ष की साधना होती है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
No comments:
Post a Comment