संकट कितना गहरा क्यों न हों, शत्रु चाहें कितने भी प्रबल क्यों न हों तथा
हमारे बनते काम बिगड़ बार बार क्यों न बिगड़ जाते होें पर कभी विचलित नहीं होना
चाहिए। हमेशा अपनी स्थिति, बाह्य छवि तथा अपनी व्यक्तिगत शक्ति सीमा पर
आत्म मंथन करते रहना चाहिये। सर्वशक्तिमान
परमात्मा ने हमारे अंदर प्राणवायु का संचार तो किया है पर शेष जीवन हम अपने ही
कर्म तथा व्यवहार का परिणाम भोगते हैं।
इतना ही नहीं हमें अपने अंदर के गुणों तथा दोषों का अवलोकन करते हुए अपनी
रणनीति बनानी चाहिये। एक बात तय है कि
कर्म के अनुसार परिणाम होता है और वह हमारी इच्छानुसार न भी मिले तो भी हमारे अंदर
की शक्ति तथा गुणों को हमसे कोई नहीं छीन सकता।
इसलिये हमें अपने अंदर के गुणों तथा शक्ति का विस्तार करना चाहिये। अपने
अंदर मौजूद कमियों को समाप्त करना संभव नहीं है पर ऐसी रणनीति बनाना चाहिये कि वह
हमारी लक्ष्य प्राप्ति में बाधा न बने।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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अम्भोजिनी वनविहार विलासमेव हंसस्य हन्ति नितरां
कुपितो विधाता।
न तवस्य दुग्धजलभेविधौ प्रसिद्धां
वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः।।
हिन्दी में भावार्थ-परमात्मा हंस पर क्रोधित होने पर उस वनविहार अवरुद्ध
कर सकता है पर जल और दूध में भेद करने के उसके गुण को छीन नहीं सकता।
यह समझ लेना चाहिये कि हमारी देह में रहने
वाली तीन प्रकृत्तियों-मन, बुद्धि
और अहंकार-अपनी अनुसार काम करती है। उन पर नियंत्रण करने वाला ही जितेंद्रिय
कहलाता है। इस संसार में अच्छा बुरा समय
सभी का आता है पर जितेंद्रिय पुरुष अपने पराक्रम से अपनी लक्ष्य की तरफ बढ़ता जाता
है। उसे पता होता है कि अगर अच्छा समय
नहीं रहा तो बुरा समय भी नहीं रहेगा। उसे यह भी विश्वास होता है कि अपने गुणों के
सहारे वह प्रतिकूल स्थिति को अनुकूल बनाकर अपना लक्ष्य प्राप्त करेगा। उसका मनोबल सदैव बढ़ा हुआ रहता है। यह मनोबल तभी बढ़ा हुआ रहा सकता है जब हम
आत्ममंथन की प्रक्रिया में सदैव लगे रहें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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