आमतौर से लोग यह समझते हैं
कि भारतीय अध्यात्म दर्शन इंद्रियों पर नियंत्रण करने के लिये हर विषय का त्याग
करने की बात करता है। वह मनोरंजन तथा खेल आदि का विरोधी है। यकीनन यह विचार किसी के भी अज्ञानी होने का ही
प्रमाण है। यह अलग बात है कि जहां भारतीय
अध्यात्मिक दर्शन जहां भक्ति तथा ध्यान साधना को एकांत करने की बात कहता है वहीं
वह सांसरिक विषयों के साथ निर्लिप्त भाव से
जुड़ने की राय भी देता है। इस देह
की सभी इंद्रियां हमेशा सक्रिय रहती हैं। इंद्रियों का यह स्वभाव है कि वह विभिन्न
रसों में लिप्त होने के लिये हमेशा उत्सुक रहती हैं। एकरसता उनको उबा देती है।
इसलिये समय और स्थिति कंे अनुसार इंद्रियों पथ बदलना चाहिये पर उनके विषयों से
जुड़ने का भी एक समय होता है। हमेशा भक्ति और साधना नहीं हो सकती तो हमेशा मनोरंजन
भी नहीं हो सकता। हमारी देह है तो उसे
सांसरिक विषयों से जोड़ना ही पड़ता हैं। प्रातःकाल योग साधना के दौरान आसन, ध्यान, मंत्र जाप तथा पूजा करने से जहां देह, मन और विचारों की शुद्धि होती है वहीं सांयकाल
मनोरंजन के दौरान गीत संगीत सुनने से भी मनोविकार दूर होने के साथ ही थकान भी दूर
होती है। आदमी की थकी देह में बैठा मन जब मयूर की तरह नाचता है उसमें वह दोपहर
अर्थोपार्जन के दौरान एकत्रित विष का नाश होता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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तत्र भुजत्वा पुनः किञ्चित्तूर्वघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमत्तिष्ठेच्य यतवलमः।।
हिन्दी में भावार्थ-भोजन करने के बाद कुछ समय हृदय को प्रसन्न करने के
लिये गीत संगीत सुनने के बाद अपनी थकान दूर करने के लिये शयन करना चाहिये।
हमारे यहां भक्ति और साधना के साथ ही मनोरंजन का भी समय तय कर जीवन नहीं
बिताया जाता। प्रातःकाल गीत संगीत के साथ
मनोंरजन के नाम पर भक्ति होती है तो सांयकाल भी कहीं भक्ति संगीत के नाम पर
मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं। हैरानी तब
होती है जब अनेक जगह भक्ति संध्या के नाम पर लगते हैं। भक्ति संध्या अर्थात
यह दो शब्द ज्ञानसाधकों को हतप्रभ कर देते हैं। तब उनके मन
में यह विचार भी आता है कि क्या संध्या को भी भक्ति होती है क्या? हां, इतना अवश्य है कि अनेक अध्यात्मिक ज्ञानी रात्रि शयन से पूर्व ध्यान कर
सोने की सलाह देते हैं पर वास्तव में इससे निद्रा अच्छी आती है। ध्यान करने से दिन
भर जो मन में एकत्रित विष नष्ट हो जाता
है। शयन करते समय उन विषयों का विचार नहीं
आता पर इसका यह आशय कतई नहीं है कि भक्ति के नाम पर मनोरंजन कर उस स्थिति को पाया
जा सकता है।
कहने का अभिप्राय है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन किसी विषय से जुड़ने पर
प्रतिबंध लगाने की राय नहीं देता पर समय तथा सीमा के अनुसार काम करने की राय देता
है। प्रातःकाल जहां एकांत साधना जीवन में
पवित्रता लाती है वहीं सांयकाल मनोरंजन करना भी मन को प्रसन्नता देता है। यह
मनोरंजन भी एकांत में या सीमित समूह में होना चाहिये न कि उसके लिये भारी भीड़
एकत्रित की जाये। भीड़ में मनोरंजन का लाभ
वैसे ही कम होता है जैसे कि सार्वजनिक रूप से भक्ति करने पर मिलता है। किसी भी भाव
की सुखद अनुभूति अंदर केवल एकांत में ही जा सकती है भीड़ में मचा शोर मनोरंजन कम
तनाव का कारण अधिक होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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