ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो देवता तथा मनुष्यों की उत्पति
हुई। उन्होंने कहा कि मनुष्य देवताओं की आराधना करें तो देवता मनुष्य को
उसका फल देंगे। अध्यात्म और सांसरिक विषयों के बीच जीव की देह पुल का काम
करती है। सांसरिक विषयों में सहजता से संबंध रखना आवश्यक है। इसलिये आवश्यक
है कि उन विषयों से संबंधित कार्य करते हुए हृदय में शुद्धि हो। सांसरिक
विषयों में फल की कामना का त्याग नहीं किया जा सकता पर उसके लिये ऐसे गलत
मार्ग का अनुसरण भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे बाद में संकट का सामना करना
पड़े। दूसरी बात यह भी है कि अपने कर्म के परिणाम की आशा दूसरे का दायित्व
नहीं मानते हुए आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करना चाहिए।।
सामवेद में कहा गया है कि
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देवाः स्वप्नाय न स्पृहन्ति।
हिन्दी में भावार्थ-देवता आलसी मनुष्य को प्रेम नहीं करते।
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देवाः स्वप्नाय न स्पृहन्ति।
हिन्दी में भावार्थ-देवता आलसी मनुष्य को प्रेम नहीं करते।
देवाः सुन्वन्तम् इच्छान्ति।
हिन्दी में भावार्थ-देवता कर्मशील मनुष्य को ही प्रेम करते हैं।
हिन्दी में भावार्थ-देवता कर्मशील मनुष्य को ही प्रेम करते हैं।
जीवन को सुचारु रूप से चलाने क्रे लिये कर्मशील होना आवश्यक है। आलस्य
मनुष्य का शत्रु माना जाता है। देह से परिश्रम न करना ही आलस्य है यह सोचना
गलत है वरन् मस्तिष्क को सोचने के ले कष्ट देने से बचना भी इसी श्रेणी में
आता है। आधुनिक सुविधाभोगी जीवन ने आदमी की देह के साथ ही उसके मस्तिष्क
की सक्रियता पर भी बुरा प्रभाव डाला है। लोग प्रमाद तथा व्यसन में अधिक
रुचि इसलिये लेते हैं कि उनके मस्तिष्क को राहत मिले। यही राहत आलस्य का
रूप है। इससे बचना चाहिए। अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने यह आलस्य स्वमेव
दूर होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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