इस संसार में अनेक महान विद्वान लोग हुए हैं जिनका सम्मान आज का मानव समाज करता है। उन विद्वानों, विचारकों और वैज्ञानिकों को मनुष्य समाज कभी नहीं भूलता जो उसके दैहिक तथा मानसिक विकास के संवाहक रहे हैं। इस संसार में अनेक राजा महाराजा हो गये पर समाज केवल उन्हीं लोगों को याद करता है जिन्होंने इस समाज के लिये चिंत्तन करने के साथ ही ऐसे अनुसंधान किये जिनसे मनुष्य का शारीरिक तथा मानसिक विकास हुआ।
हम अगर थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर देखें तो पता चलेगा कि यहां बोलने वाले बहुत हैं पर उनमें ज्ञान कितना है यह वह प्रमाणित नहीं कर पाते। दरअसल इस संसार में अधिकतर लोग कुछ भी बोलने को आतुर हैं पर कोई किसी की सुनना नहीं चाहता। श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि इंद्रिया ही विषयों में बरतती हैं। यह ज्ञान बघारने वाले कदम कदम पर मिल जाते हैं पर इसके बावजूद छोटी छोटी बातों पर मुंहवाद होते होते हिंसक वारदातें हो जाती हैं। अनेक बार तो ऐसा भी होता है कि भारी भरकम हिंसा के बाद पता चलता है कि विषय इतना गंभीर नहीं था जितना संघर्ष हुआ। संत कबीरदास जी कह गये हैं कि ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा’।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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इष्टं वीतमभिगूर्त वर्षट्कुतं देवासः प्रतिगृभ्णन्त्यश्वम्।
हिन्दी में भावार्थ-परिश्रमी तथा प्रगतिशील होने के साथ ही सभी को प्रिय लगने वाले व्यक्ति के प्रति सभी मनुष्य हृदय में आस्था रखते हैं।--------------
इष्टं वीतमभिगूर्त वर्षट्कुतं देवासः प्रतिगृभ्णन्त्यश्वम्।
धिया विप्रो अजायत।
हिन्दी में भावार्थ-विद्वान उत्तम बुद्धि से युक्त होता है।
समाज में रहते हुए छोटे छोटे विवादों में फंसने से अच्छा है कि समय समय पर चिंत्तन और मनन अवश्य कर अपना बौद्धिक विकास करें । मानसिक और वैचारिक शुद्धता के लिये अपने दिन का कुछ समय सत्संग और अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में लगायें। मंदिर जाकर ध्यान लगायें। यह सही है कि सभी जगह पत्थर की मूर्तियां हैं पर हमारे हृदय का भक्ति भाव उनमें भगवान की अनुभूति करता है जिससे हम मानसिक रूप से दृढ़ होते है। भगवान है या नहीं इस बात पर तो विचार ही नहीं करना चाहिये। न ही इस पर किसी से विवाद करना चाहिये। वह है और हमारे हृदय के अंदर स्थित है यह धारणा दूसरों पर थोपने की बजाय अपनी मानसिक स्थिति पर नियंत्रण करने में उपयोग करना चाहिये। जब आदमी अपने मन पर नियंत्रण कर लेता है तब वह विद्वान तथा पराक्रमी होकर अन्य लोगों के लिये प्रेरक बनता है। निरर्थक वार्तालाप, घूमना फिरना तथा अधिक मनोरंजन में समय बिताना मनुष्य को अत्यंत आकर्षक लगने के साथ सहज भी लगता है पर इससे बौद्धिक क्षरण होता है। जबकि विद्वान, पराक्रमी और परोपकारी समाज का नेतृत्व करते है। अन्य लोग उनके जीवन तथा व्यवहार शैली को अनुकरणीय मानकर सम्मानित करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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