वैसे राजकाज से जुड़े लोगों का भ्रष्टाचार हमारे देश के लिये नयी बात नहीं है पर पहले यह कम था। अब तो यह स्थिति यह है कि राजकाज से जुड़े लोग जनहित की बात सोचने से अधिक अपने स्वार्थ पर अधिक ध्यान देते हैं। रिश्वत लेना उनके लिये कमाई है। कहने को तो हमारे देश में धर्मभीरु लोगों की कमी नहीं है पर सवाल यह उठता है कि उसके अनुसार आचरण कितने लोग करते हैं?
स्थिति यह है कि दो नंबर की कमाई तथा रिश्वत से उगाही करने वाले लोग भी धर्म के कार्यक्रम आयोजित करते दिखते हैं। समाज सेवा का आडम्बर करते हुए अनेक लोग तो महान मायापति हो गये हैं। जहां धर्म की बात आये तो वहां ऐसे संवदेनशील हो जाते हैं जैसे कि हमेशा ही अपनी आस्था के साथ जीते हों पर सच यह है कि धर्म का दिखावा और समाज की रक्षा की बात वही लोग अधिक करते हैं जिनका इसमें अपना व्यवसायिक लाभ होता है।
श्रीगुरुग्रंथ साहिब में रिश्वत और भ्रष्टाचार की निंदा करते हुए कहा गया है कि
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‘माणसखाणे करहि निवाज।
छुरी बगाइन तिन गलि नाग।।'
‘‘रिश्वत खाने वाला मनुष्य नरभक्षी एवं दूसरे के गले पर छुरी चलाने वाला कसाई जैसे होता है।’’
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‘माणसखाणे करहि निवाज।
छुरी बगाइन तिन गलि नाग।।'
‘‘रिश्वत खाने वाला मनुष्य नरभक्षी एवं दूसरे के गले पर छुरी चलाने वाला कसाई जैसे होता है।’’
हमारे देश में हमेशा ही जहां भ्रष्टाचार के अनेक आंदोलन चलते हैं वहीं समाज निर्माण के नाम पर अभियान भी चलते हैं। ऐसा लगता है कि लोगों को मनोरंजन और धर्म के नाम पर व्यस्त रखा जाता है ताकि उनका स्वयं का चिंतन और विवेक काम न करे। कभी कभी अनेक लोग यह सवाल भी उठाते हैं कि देश में भ्रष्टाचार का आंदोलन और नैतिक मूल्यों की रक्षा करने कें लिये चलाये जाने वाले अभियानों के शीर्षक पुरुषों का स्वयं का आचरण कितना प्रमाणिक है? कई बार तो ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार से तंग लोगों का मन बहलाने के लिये इस तरह के आंदोलन प्रयोजित वही लोग कर रहे हैं जिनकी कमाई के स्त्रोत अपवित्र होने के साथ अज्ञात हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि धर्म के नाम पर दिये जा रहे दान को आस्था के कारण पवित्र माना जाता है जबकि हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म के लिये व्यय होने वाले धन के स्त्रोत भी पवित्र होना चाहिए। एक मजेदार बात यह है कि धर्म के ठेकेदारों से जब उनके धन का स्त्रोत पूछा जाता है तो कहते हैं कि ‘यह तो भगवान के भक्तों का दिया हुआ है?’’
पहली बात तो उस धन का स्त्रोत धर्म के ठेकेदारों को स्वयं नहीं पता दूसरा यह कि वह उस धन से अर्जित संपत्ति के स्वामीपन का अहंकार भी पालते हैं। इसी कारण धर्म के नाम पर अनेक ट्रस्ट बन गये हैं जबकि कहीं न कहीं उनका स्वामित्व निजी होने के साथ ही उनके कार्यक्रम भी व्यवसाय के सिद्धांतों पर आधारित हैं। इतना ही नहीं इन ट्रस्टों के भक्ति स्थलों में प्रवेश के लिये भी पैसा लिया जाता है जो कि रिश्वत का ही रूप है। यही कारण है कि हम अपने देश में इस समय धर्म के नाम पर शोरशराबा खूब देख रहे हैं जबकि आचरण की दृष्टि से पूरा समाज ही विपरीत मार्ग पर जाता दिखता है। देखा जाये तो भारतीय जनमानस मूलतः धार्मिक प्रवृत्ति का है इसलिये ही शायद उसका दोहन करने के लिये धर्म के नाम पर न केवल व्यवसायिक कार्यक्रम में होते हैं वरन् कला, साहित्य, मनोरंजन तथा पत्रकारिता में भी प्रयास किये जाते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि भ्रष्टाचार केवल सरकारी क्षेत्र में नहंी है वरन् निजी और धार्मिक क्षेत्र में उसका दुष्प्रभाव परिलक्षित होना दिख रहा है। बहसें हो रही है, आंदोलन हो रहे हैं पर लगता नहीं है कि लोगों की मानसिकता बदल रही है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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