जौं जिएँ होति न कपट कुव्वाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।।
भरतंहि दोसु देह को जाएँ । जग बोराइ राज पदु पाएँ।।
यह पद तुलसीकृत रामचरित मानस से है। बनवास में जब भरत अपने बड़े भ्राता श्रीरामचंद्र तथा लघु भ्राता लक्ष्मण से मिलने आ रहे थे तब उनके साथ गये दल के लोगों की पदचाप तथा हाथी, घोड़ों तथा रथों की तीव्र आवाजों से आकाश गुंजायमान था। उसकी ध्वनि उस स्थान तक पहुंच रही थी जहां भगवान श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता तथा भ्राता लक्ष्मण सहित विराजमान थे। श्री भरत जी को दलबदल सहित आता देखकर श्रीलक्ष्मण को उनपर संशय हो गया था तब उन्होंने यह संदेह जाहिर किया कि वह हमें मारने आ रहे हैं। श्री भरत ऐसे नहीं थे पर श्रीलक्ष्मण ने जो कहा वह संसार में मनुष्य की प्रवृत्ति पर एकदम लागू होता है।
उनका कहना था कि जब किसी को राज्य प्राप्त होता है तो उस मनुष्य की देह में स्थित अहंकार की प्रवृति चरम पर पहुंच जाती है। राजा का पद किसी को भी भ्रष्ट कर देता है। उसी तरह जब किसी सामान्य अआद्मी के पास धन संपदा अचानक आ जाती है तो उसके भी अहंकारी होने की संभावना प्रबल हो उठती है।
हम अक्सर समाज के शिखर पुरुषों से दया और परोपकार की आशा करते हैं पर देखते हैं कि वह तो अपने वैभव का विस्तार तथा उसके प्रदर्शन में ही अपना धर्म निभाते हैं। पद, पैसा और प्रतिष्ठा का बोझ कोई ज्ञानी ही ढो सकता है वरना तो लोगों की बुद्धि उसके नीचे दब जाती है। आदमी अपने को भगवान समझने लगता है।
राजकाज में जिसको हिस्सा मिल गया समझ लीजिये उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। वह उसकी शक्ति प्रदर्शन करता है और अपने लिये आयी भेंट को शान समझता है। मतलब साफ है कि हम पद, पैसा, प्रतिष्ठा के शिखर पुरुषों से दया की याचना करें पर पूरी न हो तो निराश न हों क्योंकि यह तो मनुष्य का चरित्र है जिसकी व्याख्या हमारे महान लोग समय समय पर करते रहे हैं।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
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1 comment:
बहुत सार्थक बात कही है ...
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