हमारे अध्यात्मिक दर्शन में भक्ति तथा पूजा के अनेक प्रकार बताये गये हैं। दरअसल भक्ति और पूजा हर कोई इंसान अपने मन की शांति तथा वैचारिक शुद्धता के लिये करता है इसलिये किसी भी व्यक्ति ने कोई भी पद्धति अपनाई उसकी आलोचना नहीं करना चाहिए। कुछ लोग प्रत्यक्ष रूप से भक्त तथा यज्ञ करते नहीं दिखते हैं और न ही भक्त होने का पाखंड रचते हैं जबकि समाज में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो धर्म के नाम पर कर्मकांड अथवा यज्ञ करने के लिये दबाव बनाते हैं। अनेक लोग बिना किसी दिखावे के सात्विक जीवन जीते हैं पर चूंकि वह हवन तथा यज्ञ आदि नहीं करते तो लोग उनको नास्तिक होने का ताना देते हैं। सच बात तो यह है कि यज्ञ तथा हवन आदि करने से अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य हृदय में तत्व ज्ञान धारण करे। इसके लिये प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। नियमित अध्ययन करने से जिज्ञासा बढ़ती है और अभ्यास से तत्वज्ञान का अनुभव हो जाता है।
इस विषय पर मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यथायथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति।
तथातथा विज्ञानाति विज्ञानं चास्य रोचते।।
‘‘जैसे जैसे कोई व्यक्ति शास्त्र का अभ्यास करता है वैसे ही उसे गूढ़ ज्ञान की प्राप्ति होती है और उसकी प्रवृत्ति और जिज्ञासा ज्ञान विज्ञान में बढ़ती जाती है।’’
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यथायथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति।
तथातथा विज्ञानाति विज्ञानं चास्य रोचते।।
‘‘जैसे जैसे कोई व्यक्ति शास्त्र का अभ्यास करता है वैसे ही उसे गूढ़ ज्ञान की प्राप्ति होती है और उसकी प्रवृत्ति और जिज्ञासा ज्ञान विज्ञान में बढ़ती जाती है।’’
एक बात निश्चित है कि हमारे पुराने ग्रंथों में ज्ञान के साथ विज्ञान भी अंतर्निहित है। कुछ लोग आज विज्ञान के युग में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को हेय मानते हैं पर उनको यह पता ही नहीं कि विज्ञान का आधार भी तत्वज्ञान है जिसके कारण हमारे प्राचीन अध्यात्मिक ग्रंथ विज्ञान के विषय में सामग्री से परिपूर्ण हैं।
कुछ लोग मंदिर न जाने या यज्ञों तथा हवनों में सक्रिय भागीदारी न करने वाले लोगों पर कटाक्ष करते हैं पर यह उनका ही अज्ञान है।
इस विषय पर मनुस्मृति में कहा गया है कि
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‘‘शास्त्रों के ज्ञाता कुछ गृहस्थ यज्ञादि नहीं करते पर अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपनी अध्यात्मिक शक्ति में वृद्धि करते हैं। उनके लिये लिये नाक, जीभ, त्वचा, तथा कान पर संयम रखना ही एक तरह से महायज्ञ है।
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‘‘शास्त्रों के ज्ञाता कुछ गृहस्थ यज्ञादि नहीं करते पर अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपनी अध्यात्मिक शक्ति में वृद्धि करते हैं। उनके लिये लिये नाक, जीभ, त्वचा, तथा कान पर संयम रखना ही एक तरह से महायज्ञ है।
सच बात तो यह है कि धर्म तभी ही प्रशंसनीय है जब वह आचरण तथा कर्म में दृष्टिगोचर हो न कि केवल कर्मकांड और दिखावे में। कुछ लोग जो प्रतिदिन मंदिर जाते हैं वह दूसरों को अभक्त समझते हैं जो कि उनके अज्ञान का प्रमाण है। इतना ही नहीं कुछ तो लोग ऐसे हैं जो प्रतिदिन पूजा आदि करते हैं पर व्यवहार में ऐसा अहंकार दिखाते हैं जैसे कि वही भगवान के इकलौते भक्त हों। जो वास्तव में भक्त और ज्ञानी हैं वह दिखावे से अधिक आत्मनियंत्रण तथा आचरण से उसे प्रमाणित करते हैं।
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संकलक लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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