न वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवन्ति न वै भिन्ना प्रशमं रोचवन्तिः।।
हिंदी में भावार्थ-जो परस्पर भेदभाव रखते हैं वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते जिसके कारण उनको कभी सुख नहीं मिलता। उनको कभी गौरव नहीं प्राप्त होता तथा कभी शांति वार्ता भी उनको अच्छी लगती।
स्वास्तीर्णानि शयनानि प्रपन्ना वै भिन्ना जातु निद्रां लभन्ते।
न स्त्रीषु राजन् रतिमाष्नुवन्ति न मागधैः स्तुवमाना न सूतैः।।
हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद विदुर कहते हैं कि आपस में फूट रखने लोग अच्छे बिछौने से युक्त पलंग पाकर भी उस पर सुख की नींद नहीं सो पाते। सुंदर स्त्रियों के साथ रहने तथा सूत और मागधों द्वारा की गयी स्तुति भी उनको प्रसन्न नहीं कर पाती।
न वै भिन्ना जातुं चरन्ति धर्म न वै सुखं प्राप्तनुतीह भिन्नाः।
न वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवन्ति न वै भिन्ना प्रशमं रोचवन्तिः।।
हिंदी में भावार्थ-जो परस्पर भेदभाव रखते हैं वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते जिसके कारण उनको कभी सुख नहीं मिलता। उनको कभी गौरव नहीं प्राप्त होता तथा कभी शांति वार्ता भी उनको अच्छी लगती।
वर्तमान संदर्भ मं संपादकीय व्याख्या-आज के संदर्भ में हम देखें तो विदुर महाराज की इन पंक्तियों का महत्व है। परिवार हो या समाज किसी प्रकार का भेदभाव उसके सदस्यों के लिये हारिकारक होता है। अक्सर हमारे देश में जातीय एवं भाषाई भेदभाव को लेकर टीका टिप्पणी की जाती है और भारतीय धर्म ग्रंथों पर आक्षेप किये जाते हैं पर यह संदेश इस बात का प्रमाण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन किसी भी प्रकार के भेदभाव की इजाजत नहीं देता। छोटे बड़े और अमीर गरीब का भेद दिखाकर समाज में जो वैमनस्य का वातावरण बनाया जा रहा है उसका कारण यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान को सामान्य शिक्षा से इस तरह दूर किया गया है कि लोग नैतिक और व्यवाहारिक रूप से परिपक्व न हों जिससे उन पर बौद्धिक रूप से शासन किया जा सके।
समाज में स्त्री पुरुष, उत्तम निम्न , सवर्ण अवर्ण और अमीर गरीब का भेद भुलाकर सभी को अपनी योग्यता के अनुसार सम्मान मिलना चाहिये। समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिये यह बहुत जरूरी है। पुरुष को अधिक सम्मान नहीं मिलना चाहिये पर स्त्री उत्थान के नाम पर बेकार और निरर्थक प्रचार भी व्यर्थ है। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कमतर वर्ग के लोगों के प्रति सामान्य सद्भाव दिखाना आवश्यक है पर अगर गरीब उसी तरह ऊंच, सवर्ण और अमीर के प्रति भी दिखावे का दुर्भाव या प्रचार करना बेकार की बात है जबकि सच बात तो यह है कि समाज में ऐसे भेद प्रचलित होने की बात कहकर बौद्धिक रूप से शासन करने वाले इन्हीं बड़े लोगों की सहायता लेते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज निर्माण में सभी व्यक्तियों को समान मानते हुए ही कार्य करना चाहिये तभी बाहरी शत्रुओं का मुकाबला किया जा सकता है।
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