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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, September 28, 2009

मनुस्मृति-अन्य लोगों की सुविधाओं का उपयोग न करें ((manu smriti-no use thing of other parson)


यानाश्य्यासनान्यस्य, कूपोद्यान ग्रह्यणि च।
अदत्तान्युपयु´्जानः एनसः स्वात्तुरीभाक्।।
            हिंदी में भावार्थ-वाहन, शैय्या, आसन, कुआं, उद्यान और भवन आदि का उपभोग कुछ दान कर ही करना लाभदायक होता है।


परकीयनियानुषु न स्नायाद्धि कदाचन।
नियानकत्र्तुः स्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते।।
                हिंदी में भावार्थ-अन्य व्यक्तियों द्वारा बनवाये गये स्नान के लिये बनाये गये स्थानों-स्नानगृहों,सरोवरों और कुऐं आदि-पर नहाना नहीं चाहिए। वह स्नानगृह अगर पापों के धन से बनाये गये हैं तो उसमें नहाने वाला भी उसका भागी बनता है।

                            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की व्यस्त एवं दीर्घसूत्रीय जिंदगी में यह देखना कठिन काम है कि हम कहीं बाहर जाकर रुक रहे हैं तो वहां का स्थान किस प्रकार के धन से बनाया गया है। वैसे भी आजकल बिना काले धन के यह कैसे संभव है कि समाज का भौतिक विकास इतनी तीव्र गति से हो। ऐसे में भ्रष्ट और अनैतिक रूप से कमाये गये धन से बने आवास और स्नानगृहों में रहने और नहाने का प्रतिबंध स्वीकार करना संभव नहीं लगता। बड़े बड़े शहरों में बड़े और आलीशान होटल बन गये हैं जिनमें स्वीमिंग पूल भी होते हैं। अब यह कैसे कहा जा सकता है कि वह भ्रष्ट या अनैतिक धन से बने हैं या सात्विक धन से। वैसे तो आजकल धर्नाजन के कई ऐसे साधन  पवित्र माने जाते हैं जिनको पहले अपवित्र माना जाता था। अतः इस बारे में अपने विवेक से विचार करना चाहिये।

                    मगर सच तो यह है कि जिस प्रकार हम अपने जीवन में जिस प्रकार के व्यक्ति या वस्तु के संपर्क में आते हैं उसके पाप पुण्य का प्रभाव हम पर होता है। कहा जाता है कि ‘जैसे खायें अन्न वैसा हो मन’। इसका आशय यह तो है ही कि जिस प्रकार की वस्तु का हम उपभोग करेंगे वैसे ही प्रभाव हमारी देह के साथ ही हमारे मन और विचारों पर होगा। साथ ही यह भी कि उसके आने का सात्विक मार्ग है या असात्विक इस बात का प्रभाव भी उसके उपभोग करने वाले पर होता है। तात्पर्य यह है कि अगर हमें लगता है कि कोई व्यक्ति या वस्तु-जिसके बारे में यह यकीन हो कि वह असात्विक प्रकृत्ति की है तो उससे अपने आपको दूर रखना चाहिये। यह ठीक है कि आजकल की भागम भाग जिंदगी में यह कहना कठिन है कि किसका धन एक नंबर का है या दो नंबर का पर थोड़ा विवेक का इस्तेमाल करें तो सभी समझ में आ जाता है। दूसरा सच यह भी कि हम किसी बड़े शहर में जाकर अपने लिये सस्ता और अच्छा स्थान रहने के लिये ढूंढते हैं पर तब यह देखने का न तो समय होता है न जरूरत कि वह किस प्रकार के धन से बना है। हालांकि अनजान रहने पर किसी वस्तु का उपभोग करने पर उसके पाप का भागी नहीं बनते यह भी हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है।
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