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Sunday, June 28, 2009

संत कबीर के दोहे-सिद्धि और निधि का त्याग करना श्रेयस्कर

चर्चा करु तब चैहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय

संत श्री कबीरदास जी का कथन है जब ज्ञान चर्चा चौराहे पर करो पर जब उसका अध्ययन करना हो तो दो लोगों की बीच में ही ठीक है। ज्ञान के बारे में जब ध्यान, चिंतन और मनन करना हो तो उसे एकांत में ही रहे जहां कोई दूसरा व्यक्ति न हो।

अष्ट सिद्धि नव निधि लौं, सबही मोह की खान
त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान

संत श्री कबीरदास का कथन है कि आठों सिद्धियां और नवों निधियां तो मोह की खान है। अतः इस मोह को त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम लोग अक्सर यह कहते हैं कि अमुक संत सिद्ध है और उसकी शरण लेना चाहिए या वह तो बहुत पहुंचे हुए हैं। कई कथित संत और साधु अपने लिये बकायदा विज्ञापन करते हैं जैसे कि बहुत बड़े सिद्ध हों। यह सब ढोंग हैं। अनेक लोग मंत्रों आदि के द्वारा काम सिद्ध करने का दावा करते हैं। यह सब मोह से उपजा भ्रम है। सिद्धियां और निधियों की आड़ में अनेक लोग धंधा कर रहे हैं। सिद्धि केवल मन की शांति के रूप में ही है बाकी तो दुनियां चलती है। माया का भंडार पास में हो पर अगर मन अशांत हो तो वह भी व्यर्थ नजर आता है। इस प्रकार की मानसिक शांति लिये तत्व ज्ञान होना चाहिये। वैसे तो इसके लिये गुरु का होना जरूरी है पर न मिले तो किसी समकक्ष व्यक्ति के साथ बैठकर स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद अकेले ध्यान में बैठकर अपने द्वारा ग्रहण तत्व पर विचार करना ही ठीक है। हां, उसकी चर्चा चार लोगों के करने में कोई बुराई नहीं है। इस चर्चा से न केवल अपने दिमाग में मौजूद ज्ञान का पुन:स्मरण हो जाता है और वह पुष्ट भी होता है।
देह, मन और विचार की शुद्धता के लिये प्रतिदिन,योगासन और ध्यान किया जाये तो स्वतः ही आदमी का जीवन एक पवित्र धारा में बहने लगता है। सच तो यह है कि आदमी आप ही अपना मित्र और शत्रु है। अगर जीवन में सिद्धियों और निधियों से सफलता की आशा की तो उससे कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत आदमी में कर्म के प्रति नकारत्मक भाव पैदा होता है जो कभी अच्छा नहीं समझा जाता है।

हम जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपने आपको सिद्ध मान लेना मूर्खता है क्योंकि तत्व ज्ञान का रूप अत्यंत सूक्ष्म है पर उसका विस्तार इतना दिया जाता है कि लोग उसका लाभ व्यवसायिक रूप से उठाते हैं। अनेक सिद्धियों और निधियों का प्रचार इस तरह किया जाता है जैसे वह दुनियां में हर मर्ज की दवा हैं। इनसे दूर होकर अपने स्वाध्याय, ध्यान और ज्ञान से अपने मन के विकार दूर करते रहना चाहिये।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

2 comments:

Unknown said...

aatmik tripti deta anupam aalekh

bahut bahut badhaai !

विनोद कुमार पांडेय said...

अत्यंत बढ़िया लेख,
अच्छा लगा..बधाई

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