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सर्वो दण्डजितो लोके दुर्लभो हि शुचिर्नरः।
दण्डस्य हि भयात्सर्व जगद् भोगाय कल्पते।।
हिंदी में भावार्थ-इस विश्व में राज्य दंड के भय से ही लोग नियम तथा कानून मानते हैं। ऐसे व्यक्ति बहुत कम हैं जो जो स्वभाव से ही पतित्र हों वरना अधिकतर लोग तो दण्ड के भय से अपने कर्तव्य का पालन करते हुए सुख भोगते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनु महाराज के समय की यह सच्चाई आज भी नहीं बदली कि राज्य और समाज के दंड से ही अधिकतर लोग अपने कर्तव्य की तरफ आकर्षित रहते हैं। जहां समाज और राज्य के दंड का भय नहीं रहता वहां अराजकता की स्थिति बन जाती है। इस दुनियां में बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जिनका हृदय स्वाभाविक रूप से पवित्र होता हैं। ऐसे लोग न तो दंड की सोचते हैं और न ही कर्म से विमुख होने का विचार उनके पवित्र हृदय में आते हैं। कहा भी जाता है कि मनुष्य के अंदर ही राक्षस और देवता विराजते हैं। समयानुसार वह प्रकट होते हैं। सज्जनता और शिष्टता का दिखावा करने वाले लोग जहां दंड का भय नहीं होता वहां राक्षस बन जाते हैं।
इसलिये जब दुष्ट और अक्षम लोगों से सामना हो तो उनको अपनी शक्ति का बोध कराते रहना चािहये वरना वह आपको कमजोर मानकर आप पर आक्रमण कर सकते हैं। हमारे विश्व समाज में तो कमजोर और बेसहारा पर आक्रमण करने की प्रवृत्ति आज से नहीं बरसों पुरानी है। यह नियम कोई भारत पर नहीं लागू होता बल्कि पूरे विश्व पर समान रूप से इसका प्रभाव है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक तरफ अपना अवलोकन करना चाहिये कि कभी हमारे अंदर राक्षसत्व न उत्पन्न हो वहीं इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि दूसरे के अंदर कब राक्षस्तव उत्पन्न हो और उसका प्रतिकार करने के लिये अपने पास दंड की शक्ति रखना चाहिये।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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