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Monday, June 01, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-सच्चे लोग अंत:प्रेरणा से करते हैं सत्कर्म

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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पद्माकरं दिनकरो विकची करोति चंद्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्।
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जर्ल ददाति संतः स्वयं परहिते विहिताभियोगाः

हिंदी में भावार्थ- बिना याजना किये ही सूर्य कमल को और चंद्रमा कुमुदिनी को प्रस्फुटित कर देता है। उसी तरह बादल की बिना किसी आग्रह के वर्षा कर देते हैं। यह सत्पुरुषों का भी लक्षण है कि वह अंतःप्रेरणा से दूसरो के उपकार में संलग्न रहते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-प्रचार कर समाज सेवा करने वालों को अधिक महत्व नहीं देना चाहिये। अगर देखा जाये तो समाज और जल कल्याण का जितना दंभ भरा जाता है उतना किया नहीं जाता। समाजसेवा एक व्यापार बन गयी ही है। अनेक लोगों ने संस्थायें बना ली है और फिर उसके लिये वह धनवान और दानी प्रवृत्ति के लोगों से चंदा वसूल कर सेवा करते हुए प्रदर्शन और प्रचार करते हैं। समय आने पर उनको पुरस्कार और सम्मान आदि भी मिल जाता है। जबकि दूसरों से धन लेकर समाजसेवा करना एक तरह का व्यापार हैं जिसमें कथित सेवकों की एक प्रबंधक की भूमिका होती है। यही कथित समाज सेवा अपने लिये कमीशन के रूप में धन निकालकर अपना खर्चा चलाते हैं। ऐसे कई समाज सेवक हैं जिनके स्वयं के आय स्त्रोतों का पता नहीं है पर वह लोगों के जन कल्याण का काम करते दिखते हैं।
सच्चे समाज सेवक हैं जो अंतःप्रेरणा से लोगों की सहायता का काम बिना किसी प्रचार के करते हैं। कई ऐसे महादानी लोग हैं जो न दान करने के बाद उसका प्रचार नही किया करते। फिर समाज सेवा केवल धन दान करना ही नहीं होती बल्कि दूसरे को ज्ञान देना भी एक तरह का दान है। दूसरे को स्वास्थ्य संबंधी सहायता देना भी एक तरह का परोपकार है। कई चिकित्सक हैं जो बिना किसी शुल्क के मरीजों को परामर्श देते हैं। ऐसे परोपकार न तो किसी की याचना की प्रतीक्षा करते हैं और न ही सहायता करने पर उसका प्रचार करते है।
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