किसी
समय फिल्म देखना, शराब पीना तथा जुआ खेलना समाज में अनुचित
कर्म माना जाता था पर अब यही सब व्यसन आधुनिकता के पर्याय बन गये है। कथित भौतिक
विकास ने समाज में आर्थिक रूप से भारी विषमता का निर्माण किया है। जिनके पास पैसा
अधिक है उनके सामने उसे व्यय करने की भारी समस्या है। यही कारण है कि अधिक धनवान और उनके परिवार के
सदस्य व्यसनों को फैशन बना लेते हैं।
ऐसे
अनेक अपराध सामने आ रहे हैं जिसमें अमीर और उनकी संतानें पैसे के दम पर
अनुशासनहीनता यह सोचकर दिखाते हैं कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। इन अपराधों का विश्लेषण करें तो यह बात साफ हो
जाती है कि अधिक पैसा न होता तो अपराधी कभी दुष्कर्म करने का साहस नहीं करता। इसका मूल कारण यह है कि आर्थिक उदारीकरण के
चलते समाज में व्यवसायिक अस्थिरता आयी है।
जिसने लोगों की दृष्टि में आर्थिक दृष्टि से संपन्न लोगों पर निर्भरता बढ़ी
है। दूसरी बात यह है कि भोजन पचाने के
लिये ढेर सारी दवाईयां मिलती हैं पर धन पचाने का साधन कोई न जानता है न कोई पाना
चाहता है। जिसके पास धन है वह स्वयं को
सर्वज्ञ मान लेता है तो समाज भी उस पर उंगली नहीं उठाता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
व्यसन्यधोऽव्रजति स्वयात्यव्यसनी मृतः।।
हिन्दी में भावार्थ-मृत्यु
से अधिक व्यसन कष्टकारी होता है। व्यसन करने वाले व्यक्ति का निरंतन पतन होता है
जबकि व्यसन रहित व्यक्ति सहजता से स्वर्ग प्राप्त करता है।
इस
भौतिक युग में नैतिकता की बात करना नक्कार खाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती
है। इस कारण फैशन बन चुके व्यसन समाज में
अव्यवस्था फैला रहे हैं। समाज में चेतना
लाने के ढेर सारे अभियान है पर अध्यात्मिक शक्ति के अभाव में उनका कोई परिणाम
दृष्टिगोचर नहीं होता।
वैसे
दूसरे लोगों की बात सुनने की बजाय लोग अपने अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें तो
नैतिकता का पालन करना उनके स्वभाव का अभिन्न भाग हो जायेगा और वह जीवन में पतन से
बच सकेंगें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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