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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, August 15, 2014

आस्तिक और नास्तिक के बीच अध्यात्मिक विषय-हिन्दी चिंत्तन लेख(astik aur nastik ke beech adhyatmik vishaya-hindi thought article)




      अमेरिका में नास्तिकतावादी चर्चों का प्रभाव बढ़ रहा है- समाचार पत्रों प्रकाशित यह खबर दिलचस्प होने के साथ  विचारणीय भी है। पाश्चात्य दृष्टि से  ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने वालो को कहा जाता है। न करने वाले को नास्तिक का तमगा लगाकर निंदित घोषित किया जाता है। वहां के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण है जिनमें धर्मांध समाज के क्रूर शिखर पुरुषों ने नास्तिक होने को आरोप लगाकर अनेक लोगों को निर्दयी दंड दिया।  हमारे यहा आस्तिकता और नास्तिकता के विवाद अधिक  संघर्ष नहीं देखे जाते इसलियें ऐसे उदाहरण नहीं मिलते।  यह अलग बात है कि परमात्मा के अस्तित्व पर हार्दिक आस्था रखने वाले कितने हैं इसका सही आंकलन करना सहज नहीं है। कारण यह कि यहां धर्मभीरुता का भाव अधिक है इसलिये  कुछ चालाक लोग तो केवल इसलिये धर्म के धंधे में आ जाते हैं कि भीड़ का आर्थिक दोहन किया जा सके।  वह पुराने ग्रंथों को रटकर राम का नाम लेकर अपने मायावी संसार का विस्तार करते हैं।  माया के शिखर पर बैठे ऐसे लोग एकांत में वह परमात्मा पर चिंत्तन करने होंगे इस पर यकीन नहीं होता।  सच्ची भक्ति का अभाव यहां अगर न देखा गया होता तो हमारे हिन्दी  साहित्य में भक्तिकाल के कवि कभी ऐसी रचनायें नहीं देते जिनमें समाज को सहज और हार्दिक भाव से परमात्मा का स्मरण करने का संदेश दिया गया।  इतना ही नहीं संत कबीर और रहीम ने तो जमकर भक्ति के नाम पर पाखंड की धज्जियां उड़ाईं है। स्पष्टतः यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में भक्ति के नाम पर न केवल पाखंड रहा है बल्कि अपनी शक्ति अर्जित करने तथा उसके प्रदर्शन करने का भी यह माध्यम रहा है।
      अगर हम पाश्चात्य समाज में नास्तिकतावाद के प्रभाव की खबर को सही माने तो एक बात साफ लगती है कि कहीं न कहीं वहां वर्तमान प्रचलित धर्मों की शक्ति में हृास हो रहा है। हम यह सोचकर प्रसन्न न हों कि भारतीय धर्मों में कोई ज्यादा स्थिति बेहतर है क्योंकि कहीं न कहीं अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा के साथ ही रहन सहन तथा खान पान में हमने जो आदते अपनायी हैं उससे यहां भी समाज मानसिक रूप से लड़खड़ा रहा है।  यहां नास्तिकतवाद जैसा तत्व सामाजिक वातावरण में नहीं है पर अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति  व्याप्त उदासीनता का भाव वैसा ही है जैसा कि पश्चिम में नास्तिकवाद का है।
      हम यहां भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की बात करें तो उसमें ज्ञान और कर्मकांडों के बीच एक पतली विभाजन रेखा खिंची हुई है जो दिखाई नहीं देती।  श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्टतः स्वर्ग दिलाने वाले कर्मकांडों के प्रति रुचि दिखाने वालों को अज्ञानी बताया गया है।  मूल बात यह है कि भक्ति  आतंरिक भाव से की जाने वाली वह क्रिया मानी गयी है जो मानसिक विकारों से परे ले जाती है शर्त यह कि वह हृदय से की जाये।  इसके विपरीत भारत के बाहर पनपी विचाराधाराओं में अपने समूहों के लिये बकायदा खान पान और रहन सहन वाले बंधन लगाये गये हैं। इसके विपरीत भारतीय अध्यात्मिक दर्शन उन्मुक्त भाव से जीवन जीने की प्रेरणा देता है।  वह किसी वस्तु, विषय और व्यक्ति में दोष देखने की बजाय साधक को आत्ममंथन के लिये प्रेरित करता है।  इतना ही नहीं अध्यात्मिक दर्शन तो किसी कर्म को भी बुरा नहीं मानता पर वह यह तो बताता है कि वह अपनी प्रकृत्ति के अनुसार कर्ता को परिणाम भी देते हैं।  अब यह कर्ता को सोचना है कि किस कर्म को करना और किससे दूर रहना है। भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा के प्रवाह में लोच है।  वह परिवर्तन के लिये तैयार रहने की प्रेरणा देती है। अध्यात्मिक ज्ञान के साथ भौतिक विज्ञान के साथ संयुक्त अभ्यास करने का संदेश देती है।
      हम अक्सर विश्व में अध्यात्मिक गुरु होने के दावे का बखान करते हैं पर स्वयं अपनी मौलिक विचारधारा से दूर हटकर पाश्चात्य सिद्धांतों को अपना रहे हैं।  कहा जाता है कि अध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य को मानसिक रूप से दृढ़ता प्रदान करता है जो कि सांसरिक विषयों में युद्धरत रहने के लिये आवश्यक है। भगवान के प्रति आस्था होने या न होने से किसी दूसरे को अंतर नहीं पड़ता वरन् हमारी मनस्थिति का ही इससे सरोकार है।  आस्था हमारे अंदर एक रक्षात्मक भाव पैदा करती है और सांसरिक विषयों संलिप्त रहते हुए सतर्कता बरतने की प्रेरणा के साथ आशावाद के मार्ग पर ले जाती है जबकि अनास्था आक्रामकता और निराशा पैदा करती है। तय हमें करना है कि कौनसे मार्ग पर जाना है।  संभव है कि हम दोनों ही मार्गों पर चलने वालों की भीड़ जमा कर लें पर हमारी दूरी हमारे स्वयं के कदम ही तय करते हैं और हमारा लक्ष्य हमारी तरह ही एकाकी होता है उसे किसी के साथ बांटना संभव नहीं है।
      भारत में नास्तिक विचाराधारा अभी प्रबल रूप से प्रवाहित नहीं है पर कुछ लोग हैं जिन्होंने यह दावा करना शुरू कर दिया है। ऐसे ही हमारे एक मित्र ने हमसे सवाल किया-‘‘आप भगवान पर विश्वास करते हैं?’
      हमने उत्तर दिया कि ‘‘पता नहीं!
      उसने कहा-‘‘पर आप तो अध्यात्म पर लिखते हैं।  यह कैसे हो सकता है कि परमात्मा पर विश्वास न करें।  मैं तो नहीं करता।’’
      हमने कहा-‘‘हम तो अभी शोध के दौर से हैं।  जब काम पूरा हो जायेगा तब आपको बतायेंगे।
      उसने व्यंग्यताम्क रूप से कहा-‘‘अभी तक साधना से आपने कुछ पाया है तो बताईये  भगवान है कि नहीं!’’
      हमने कहा-‘‘वह अनंत है। हमारा दर्शन तो यही कहता है।’’
      फिर उसने व्यंग्य किया-‘‘अरे वाह, सभी कहते हैं कि वह एक है।’’
      हमने कहा-‘‘वह एक है कि अनेक, यह बात कहना कठिन है पर वह अनंत है।’’
      वह झल्ला गया और बोला-‘‘आप तो अपना मत बताईये कि वह है कि नहीं?’’
      हमने कहा-‘‘अगर हम हैं तो वह जरूर होगा।’’
      वह चहक कर बोला-मैं हूं इस पर कोई संशय नहीं पर भगवान को नहीं मानता।
      हमने पूछा-‘‘मगर तुम हो यह बात भी विश्वास से कैसे कह सकते हो।’’
      वह चौंका-इसका क्या मतलब?’’
      हमने कहा-हमने अध्यात्मिक ग्रंथों में पढ़ा है कि ब्रह्मा जी के स्वप्न की अवधि में ही यह सृष्टि चलती है।  हम सोचते हैं कि जब ब्रह्मा जी के सपने या संकल्प पर ही यह संसार स्थित है तो फिर हम हैं ही कहां? अरे, हमारी निद्रा में भी सपने आते हैं पर खुलती है तो सब गायब हो जाता है।’’
      वह थोड़ी देर खामोश रहा फिर बोला-यार, तुम्हारी बात मेंरी समझ में नहीं आयी।’’
      हमने कहा-हमने तुम्हारे भगवान के प्रति विश्वास या अविश्वास का उत्तर इसलिये ही नहीं दिया क्योंकि अध्यात्मिक साधना करने वाले ऐसे प्रश्नों से दूर ही रहते हैं।’’
      उस बहस का कोई निष्कर्ष निकलना नहीं था और न निकला। आखिरी बात यह है कि अध्यात्मिक साधना करने वालों के लिये इस तरह की बहसें निरर्थक होती है जिनमें व्यक्ति अपने प्रभाव बढ़ाने के लिये तर्क गढ़ते हैं।  अध्यात्मिक साधना नितांत एकाकी विषय है और परमात्मा के प्रति विश्वास या अविश्वास बताने की आवश्यकता अपरिपकव ज्ञानियों को ही होती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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