विश्व में जितने भी प्रचलित कथित
धर्म हैं उनके प्रचारक सक्रिय हैं।
हर धर्म का प्रतीक और पवित्र कोई रंग माना गया है जिससे रंगे वस्त्र यह
प्रचारक पहनते हैं। इनके पहनने से ही आम
लोग उनको सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।
यह अलग बात है कि ऐसे अनेक कथित धार्मिक ठेकेदार अपनी अधार्मिक गतिविधियों
के कारण बदनाम भी हुए हैं। हम यहां उन धार्मिक वाचकों की बात कर रहे हैं जो भले ही
अधार्मिक गतिविधियों मे लिप्त न हों पर समाज पर शासन करने की उनकी प्रवृत्ति ही
उनको इस धर्म के पेशे से जोड़ लेती हैं।
मुख्य बात यह है कि वह अपने धर्म के बारे में लोगों को प्रवचन यही सोचकर
देते हैं कि वह ज्ञानी है। यह सोच अहंकार का प्रमाण है। यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण ने
श्रीमद्भागवत गीता में तत्व ज्ञान का उपदेश केवल अपने ही भक्तों में करने का
प्रतिबंध लगा दिया जबकि पाश्चात्य विचारधाराओं में धर्म का प्रचार एक महत्वपूर्ण
काम माना गया। सवाल यह है कि कोई वाकई
धर्म का मर्मज्ञ है इसका प्रमाणपत्र कौन देगा? आमजन तो दे ही
नहीं सकते जो ऐसे लोगों के सामने केवल इसलिये नतमस्तक होते हैं क्योंकि धन, पद और बल के केंद्रबिंदु में ऐसे अनेक कथित धर्माचार्य आते हैं जिन्होंने
चालाकी से अपनी छवि बनायी होती है। यह कथित ज्ञानी एक दूसरे को व्यवसायिकता
प्रतिस्पर्धा के कारण ऐसा प्रमाणपत्र दे नहीं सकते। सभी में अपने ज्ञान का अहंकार नाक पर मक्खी की
तरह बैठा रहता है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः
हिंदी में भावार्थ -जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में भावार्थ - बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
मनुष्य की पंच तत्वों से बनी इस देह में मन,
बुद्धि तथा अहंकार स्वाभाविक रूप से रहते हैं। अच्छे से अच्छे
ज्ञानी को कभी न कभी यह अहंकार आ जाता है कि उसके पास सारे संसार का
अनुभव है। इस पर आजकल अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लोग तो यह मानकर चलते हैं
कि उनके पास हर क्षेत्र का अनुभव है जबकि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के
बिना उनकी स्थिति अच्छी नहीं है। सच तो यह है कि आजकल जिन्हें गंवार समझा जाता है वह अधिक ज्ञानी लगते हैं क्योंकि वह प्रकृति से जुड़े हैं और
आधुनिक शिक्षा प्राप्त आदमी तो एकदम अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गये हैं। इसका प्रमाण यह
है कि आजकल हिंसा में लगे अधिकतर युवा आधुनिक शिक्षा से संपन्न हैं। इतना ही नहीं अब
तो अपराध भी आधुनिक शिक्षा से संपन्न लोग कर रहे हैं।
जिन लोगों के शिक्षा प्राप्त नहीं की या कम शिक्षित हैं वह अब अपराध करने की बजाय अपने काम
में लगे हैं और जिन्होंने अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त की और इस कारण उनको
आधुनिक उपकरणों का भी ज्ञान है वही बम विस्फोट और अन्य आतंकवादी वारदातों में
लिप्त हैं। इससे समझा जा सकता है कि उनके अपने आधुनिक ज्ञान का अहंकार किस बड़े पैमाने पर
मौजूद है।
आदमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब
वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम
चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट
जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम
ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम
हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी
होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से
भटका भी सकते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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