इस संसार में तीन प्रकार के लोग होते हैं-सात्विक,
राजस और तामस। योगी और ज्ञानी इस भेद को जानते हैं इसलिये कभी
अपनी स्थिति से विचलित नहीं होते। सात्विक
पुरुष तो केवल अपनी भक्ति में लीन रहते हुए जीवन बिताते हैं जबकि राजस प्रवृत्ति वाले
अनेक प्रकार के उपक्रम करते हैं ताकि उनको भौतिक लाभ मिलता रहे। तामसी प्रवृत्ति के
लोग जहां जीवन में आलस्य के साथ प्रमाद में समय बिताते हैं वही उनके अंदर अनेक प्रकार
का वैचारिक भ्रम भी रहता है।
हम यहां
खासतौर से राजसी प्रवृत्ति के लोगों की चर्चा करना चाहेंगे। मुख्य रूप से राजस पुरुष
ही संसार का संचालन करते हैं। उनकी भूमिका
समाज में अत्यंत व्यापक होती है। इस प्रवृत्ति
के लोगों में लोभ, अभिमान तथा क्रोध जैसे दुर्गुण स्वाभाविक रूप से विद्यमान होते हैं। राजसी प्रवृत्ति के कर्मों को प्रारंभ कोई भी मनुष्य बिना लाभ पाने की इच्छा के नहीं करता।
यह अलग बात है कि ऐसा करने वाले अपने अंदर सात्विक प्रवृत्ति होने का दावा करते
हैं। ऐसे लोग समाज के कल्याण और गरीब के उद्धार के कर्म में संलग्न
होने का दावा इस तरह करते हैं जैसे कि परोपकार करना उनका व्यवसाय है। उनके पास धन आता है। धन की अधिकता हमेशा ही अहंकार
को जन्म देती है। इससे कोई बच नहीं सकता। उच्च पद, धन, और प्रतिष्ठा की उपलब्धि हमेशा ही
मनुष्य को उसी तरह दिग्भ्रमित करती है जैसे कि वर्षा ऋतु में नदियों का जल धारा बाहर
आकर अपने ही किनारे तोड़ते हुए वृक्षों को उजाड़ देती हैं। परिणाम स्वरूप बाहर की गंदगी वापस लौटती धारा के
साथ ही नदी के पानी में समा जाती है।
संत प्रवर तुलसी दास जी कहते हैं
कि
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‘तुलसी’ तोरत तीर तरु, बक हित हंस बिडारि।
विगत नलिन आनि मलिन जान, सुरसरिहु बढ़िआरि।।
सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-गंगाजी में जब पानी बढ़ जाता
है तब वह वृक्षों को तोड़कर हंसों को भगाने के साथ बगुलों के लिये जगह बना देती है। उस समय गंगा कमल और भौरों से रहित
और गंदे जल वाली बन जाती है।
हमने आर्थिक,
राजनीतिक, सामाजिक तथा अन्य राजसी कर्मों
में शिखर पर पहुंचे लोगों का पतन देखा होगा।
जब कोई मनुष्य राजसी शिखर पर पहुंचता है तब उसमें अहंकार आ ही जाता हैै। पद, पैसे और प्रतिष्ठा की अधिकता किसी को नहीं पच पाती। ऐसे लोगों से यह आशा करना ही बेकार है कि किसी के
कड़वे सच को वह सहजता से सहन कर जायें। परिणाम
यह होता है कि सत्पुरुष उनसे दूर हो जाते हैं और चाटुकार और पाखंडी लोग उनकी सेवा में
आ जाते हैं। ज्ञानी और योगी लोग इसी कारण कभी
भी राजसी पुरुषों के पास नहीं जाते क्योंकि वह जानते हैं कि कहीं वार्तालाप में उनके
अहंकार पर आघात पहुंचा तो वह अपनी क्रूरता दिखाने से बाज नहीं आयेंगे। यही कारण है कि राजसी पुरुषों के इर्दगिर्द झूठी
प्रशंसा करने वाले लालची लोगों का जमघट हो जाता है। अंततः वही लोग उनके पतन का कारण
भी बनते हैं जो केवल भौतिक साधना की खातिर उनके पास आते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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