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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, February 17, 2010

संत कबीर के दोहे-धर्म का असली स्वरूप समझना जरूरी

संत शिरोमणि कबीरदास अपने समय के धार्मिक विवादों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि
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कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।
एक तरफ भारतीय हैं जो कहते हैं कि हमें राम प्यारा है दूसरी तरफ तुर्क हैं जो कहते हैं कि हम तो रहीम के बंदे हैं। दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे को तबाह कर देते हैं पर धर्म का मर्म नहीं जानते।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जैसा कि इतिहास गवाह है कि भारत पर विदेशी हमले हुए। शुरुआती दौर में हमलावर केवल धन के लिये आये पर बाद में उनको लगा कि यह देश सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है तो यहीं अपना स्थाई निवास बना लिया। उनका उद्देश्य यहां शासन करना था पर इसमें भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति उनके लिये बाधा थी। वह आसानी शासन करते पर भारत में ऐसे लोगों की तादाद अधिक थी जो किसी के राजा होने की परवाह नहीं करते थे। उनके लिये भगवान के बाद राजा का नंबर आता था जबकि विदेशी शासक चाहते थे कि भगवान से पहले उनकी प्रतिष्ठा बने। इसलिये उन्होंने अपने साथ कथित रूप से धार्मिक संत भी रखे। इसके अलावा शासन के कार्यक्षेत्र का विस्तार किया जिससे कि यहां के लोगों के जनजीवन में राज्य का दखल अधिक हो। कुछ लोग कहते हैं कि विदेशी लोगों ने इस देश को सभ्य बनाया है-यह दावा हास्यास्पद है। दरअसल विदेशी लोगों ने राज्य का समाज के कार्यक्षेत्र में दखल बढ़ाया ही है। यही कारण है कि अनेक ऐसे क्षेत्र जहां राज्य का काम नहीं है वहां भी उसका विस्तार इस तरह हो गया जिससे समाज कमजोर हो गये हैं। फिर फूट डालो राज्य करो की तर्ज पर विदेशी शासक यहां जमे रहे और उन्हें अपने धर्म से इस देश की अध्यात्मिक विचाराधारा का कमतर साबित करने का प्रयास किया। इसलिये झगड़े बढ़े और आज तक उनको देखा जा सकता है। तुर्क यानि मध्य एशिया के देशों के लोग अपने रहीम (कविवर रहीम नहीं) को मानते जबकि भारत में तो भगवान राम की महिमा गायी जाती रही है। इस तरह झगड़े शुरु हुए जो अभी तक जारी हैं जिससे देश का आर्थिक, सामाजिक, तथा वैचारिक विकास अवरुद्ध हो गया है।
मुख्य बात है धर्म का मर्म। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ किसी धर्म की संज्ञावाचक पहचान नहीं देते बल्कि कर्म की शुद्धता ही धर्म की पहचान मानी जाती है। इसके विपरीत बाहर से आयी विचाराधारायें न केवल नाम से पहचाने जाते हैं बल्कि उनके इष्ट की पूजा के तरीके और स्वयं के पहनावे को लेकर भी अनेक प्रतिबंध हैं। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान शुद्ध निष्काम कर्म और हृदय से की गयी भक्ति को ही धर्म का रूप मानता है जबकि बाहर से आयातित विचार तो आदमी के जन्म और मरण में भी रीतियां सिखाते हैं। भारतीय अध्यात्मिक गंथों में धर्म का अर्थ भले ही छोटा है पर उसका दायरा व्यापक है। सबसे बड़ी बात यह है कि अहिंसा धर्म की प्रधानता है जबकि विदेशी हमलावर यहां लूटने आये तो उनके लिये हिंसा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इस तरह के हमलों ने ही यहां के निवासियों को शायद इतना विचलित कर दिया कि उन्हें अपने नाम और पहचार के साथ हिन्दू धर्म जोड़कर संगठित होने का विचार किया। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि अंततः यह एक राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति का एक अच्छा प्रयास रहा होगा जिसकी बाध्यता रही होगी।
बहरहाल जो बीत गया उसे भुलाना चाहिये था पर आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो इस प्रकार के विवाद का जारी रखना चाहते हैं। जब हमारे लिये धर्म का सूक्ष्म अर्थ होते हुए भी उसका दायरा बड़ा है तो हमें किसी भी विचाराधारा या धर्म पर आक्षेप न करते हुए अपने भारतीय होने की अनुभूति के साथ जीना चाहिये। हम अगर इतिहास गर्व या कुंठा के साथ जीना चाहेंगे तो सिवाय संताप के कुछ नहीं मिलना है। इस देश में विभिन्न देशों से लोग आये पर अब यहीं के होेकर रह गये। अब हमें नये सिरे से सोचना चाहिए पर समस्या यह है कि समाज में संघर्ष पैदा कर कुछ लोग अपने हित साध रहे हैं। वह धर्म पर बहसें और विवाद खड़े करते हैं पर जानते ही नहीं कि उसका आशय क्या है? सच तो यह है कि भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान ही सत्य की अनुभूति कराता है जहां तक धर्म का सवाल है तो उसके नाम पर ढेर सारे भ्रम हैं और इतिहासकार क्या कहते हैं यह अलग बात है पर हमारा विचार तो यह है कि कोई धार्मिक विचाराधारा केवल राजनीतिक संबल पाने के लिये प्रतिपादित की गयी हैं और उनका उद्देश्य प्रेम या अमन लाना नहीं है जैसा कि कुछ शायर यह कवि कहते हैं। बेहतर यही है कि हम अपना मार्ग भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों में ही ढूंढें। उससे भी बड़ी बात यह है कि हम दूसरों को हानि पहुंचाने वाले विचारों से परे होकर सभी के सुख पर विचार करें। यह प्रेम कोई सिखाने या समझाने का विषय नहीं है। मनुष्य में यह गुण स्वाभाविक रूप से रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि हमें अपने प्राचीन ग्रंथो का निरंतर अध्ययन करते रहना चाहिये ताकि हमें ज्ञान प्राप्त हो और किसी द्वारा बताये गये गलत मार्ग का अनुसरण न करें।
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संकलक एवं व्याख्याकार -दीपक भारतदीप
http://rajlekh.blogspot.com/
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