स्वभावेन हरेन्मित्रं सद्भावेन व बान्धवान्।
स्त्रीभृत्यान् प्रेमदानाभ्यां दाक्षिण्येनेतरं जनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-स्वभाव से मित्र, सद्भाव स बंधुजन, प्रेमदान से स्त्री और भृत्यों को चतुराई से वश में करें।
स्त्रीभृत्यान् प्रेमदानाभ्यां दाक्षिण्येनेतरं जनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-स्वभाव से मित्र, सद्भाव स बंधुजन, प्रेमदान से स्त्री और भृत्यों को चतुराई से वश में करें।
ये प्रियाणि प्रभाषन्ते प्रयच्छन्ति च सत्कृतिम्।
श्रीमन्तोऽनिद्य चरिता देवास्ते नरविग्रहाः।।
हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य सदैव प्रिय और मधुर वाणी बोलने के साथ ही सत्पुरुषों की निंदा से रहित होते हैं उनको शरीरधारी देवता ही समझना चाहिये।
श्रीमन्तोऽनिद्य चरिता देवास्ते नरविग्रहाः।।
हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य सदैव प्रिय और मधुर वाणी बोलने के साथ ही सत्पुरुषों की निंदा से रहित होते हैं उनको शरीरधारी देवता ही समझना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कौटिल्य का अर्थशास्त्र न केवल अध्यात्मिक ज्ञान बल्कि जीवन जीने की कला का रूप भी हमारे सामने प्रस्तुत करता है। अगर हम गौर करें तो देखेंगे कि हम अपने शत्रु और मित्र स्वयं ही बनाते हैं। अपने लिये सुख और कष्ट का प्रबंध हमारे व्यवहार से ही होता है। अक्सर हम लोग ऐसे व्यक्ति की निंदा करते हैं जो हमारे सामने मौजूद नहीं रहता। यह प्रवृत्ति बहुत आत्मघाती होती है क्योंकि हम स्वयं भी इस बात से आशंकित रहते हैं कि हमारे पीछे कोई निंदा न करे। एक बात पर ध्यान दें कि कुछ ऐसे लोग हमारे आसपास जरूर विचरण करते हैं जो दूसरे की निंदा आदि में नहीं लगे रहते उनकी छवि हमेशा ही अच्छी रहती है। महिलाओं में परनिंदा की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है पर जो महिलाऐं इससे दूर रहती हैं अन्य महिलायें स्वयं उनको देखकर अचंभित रहती हैं-वह स्वयं ही कहती हैं कि ‘अमुक स्त्री बहुत शालीन है और किसी की निंदा वगैरह जैसे कार्य में लिप्त नहीं होती।’
दूसरे की बुराई कर अपनी श्रेष्ठता का प्रचार मानवीय मन की स्वभाविक बुराई है और जो इससे परे रहता है उसे तो शरीरधारी देवता शायद इसलिये ही समझा जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिन लोगों को अपनी छवि बनाने का मोह हो वह परनिंदा करना छोड़ दें तो उनको अपना लक्ष्य पाने में अत्यंत सहजता और सरलता अनुभव होगी। वैसे हम सामान्य जीवन में भी देखें तो वही लोग सभी को पसंद आते हैं जो निंदा रहित होते हैं। परनिंदा का खेल तो चूहे बिल्ली की तरह है। एक आदमी दूसरे की तो दूसरा तीसरे की निंदा करने में लगा रहता है। इससे वैमनस्य बढ़ता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://deepkraj.blogspot.com
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