पुरुषार्थोऽतश्शब्दादिति बादरायणः।।
हिन्दी में भावार्थ-पुरुषार्थ की सिद्धि ब्रह्मज्ञान से होती है क्योंकि शब्द से ही यह सिद्ध होता है कि इसे बादरायण कहते हैं।
आचारदर्शनात्।
हिन्दी में भावार्थ-श्रेष्ठ पुरुषों का आचरण देखने से सिद्ध होता है कि ब्रह्म विद्या उनके कर्मों का अंग है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ब्रह्मज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान के बिना मनुष्य ऐसे ही हो जाता है जैसे कि पशु। बस अंतर यह है कि पशु की गर्दन में रस्सी बांधकर हांका जाता है जबकि मनुष्य के मन में लालच, लोभ और मोह की रस्सी बांध कर उसे दूसरा मनुष्य हांक सकता है। कहीं अहंकार, क्रोध और निराशा वश आदमी स्वयं भी दूसरे के चंगुल में फंस जाता है। इससे बचने का यही उपाय है कि तत्व ज्ञान को कहीं से ग्रहण किया जाये। वर्तमान युग में अर्थ की अधिक प्रधानता है इसलिये धर्म का लोप करने का प्रयास वणिक वर्ग करता है क्योंकि अधिक धन होने के कारण उसे बढ़ाने का उपाय वही जानता है। इस मार्ग पर उसकी बुद्धि चलती है इसलिये जो सामान्य वर्ग है उसके लिये एक तरह ये दोहन की वस्तु है। वणिक वर्ग उसे अपने जाल में फंसाने के लिये मोह, लालच और लोभ के फंदों का निर्माण करता है।
अपने देश का अध्यात्मिक ज्ञान सत्य रूप है पर उसे पश्चिमी देश तथा उन जैसी वणिक वृत्ति के यहीं के लोग उसे दबाना चाहते हैं। देश के शैक्षणिक संस्थानों में भारतीय अध्यात्म का ज्ञान नहीं दिया जाता। यही नहीं अपने देश में धर्म परिवर्तन की घटनायें भी करायी जाती हैं ताकि भारतीय अध्यात्म को हेय समझा जाये। देखा जाये तो धर्म को किसी नाम से पुकाराना ही एक तरह का भ्रम है क्योंकि वह तो श्रेष्ठ आचरण का प्रतीक भर है। भारतीय धर्मग्रंथें में धर्म शब्द है पर उससे कोई दूसरा शब्द नहीं जुड़ा क्योंकि उसे आचरण का प्रतीक माना गया है। इसके विपरीत विदेशी विचारक अपने धर्मों को नाम लेकर श्रेष्ठ बताते हैं। दरअसल यह उनका भ्रम हैं। मजे की बात यह है कि अनेक धर्मों के लोग अपने धर्म का विस्तार करने तथा पहचान बचाने के लिये जूझ रहे हैं। ऐसे भ्रमित लोग भी हैं जो सारे धर्मों को एक बताकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाते हैं जबकि धर्म तो बस धर्म है फिर उनमें एक होने की बात कहां से आती है। अगर यह तत्व ज्ञान भारतीय लोग धारण कर लें तो वह ऐसे फंदों में नहीं फंसेंगे।
इसके विपरीत जो ज्ञानी हैं वह केवल आचरण की बात करते हैं। उनको एकता आदि विषय ढोंग का विषय लगते हैं क्योंकि मनुष्य का सहज स्वभाव है कि जिसमें उसके स्वार्थ है उससे वह स्वयमेव जुड़ता है। ऐसे में लोगों की आपस में एकता स्थापित करने की बात बेमानी लगती है पर इसे समझने के लिये तत्वज्ञान का होना जरूरी है।
इस नश्वर संसार को सही ढंग से समझने वाले लोग ही विद्वान हैं और वह कर्म करते हुए फल के भाव लिप्त नहीं होते। समय के अनुसार वह इतिहास में एक श्रेष्ठ पुरुष के रूप में उनका नाम दर्ज होता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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