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फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम
कहैं कबीर सेवक नहीं, कहैं चौगुना दाम
जो मनुष्य अपने मन में इच्छा को रखकर निज स्वार्थ से सेवा करता है वह सेवक नही क्योंकि सेवा के बदले वह कीमत चाहता है। यह कीमत भी चौगुना होती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हमने देखा होगा कई लोग समाज की सेवा का दावा करते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य केवल आत्मप्रचार करना होता है। कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होने अपने नाम से सेवा संस्थान बना लिए है और दानी लोगों से चन्दा लेकर तथाकथित रूप से समाज सेवा करते हैं और मीडिया में अपनी ‘समाजसेवी’की छबि का प्रचार करते हैं ऐसे लोगों को समाज सेवक तो माना ही नहीं जा सकता। इसके अलावा कई धनी लोगों ने अपने नाम से दान संस्थाए बना रखी हैं और वह उसमें पैसा भी देते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य करों से बचना होता है या अपना प्रचार करना-उन्हें भी इसी श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि वह अपनी समाज सेवा का विज्ञापन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
कुल मिलाकर समाजसेवा आजकल एक व्यापार की तरह हो गयी है। सच्चा सेव तो उसे माना जाता है जो बिना प्रचार के निष्काम भाव से सच्ची सेवा करते हैं। अपने भले काम का प्रचार करने का आशय यही है कि कोई आदमी उसका प्रचार कर फायदा उठाना चाहता है। कई बार ऐसा भी होता है कि हम जब कोई भला काम कर रहे होते हैं तो यह भावना मन में आती है कि कोई ऐसा करते हुए हमें देखें तो इसका आशय यह है कि हम निष्काम नहीं हैं-यह बात हमें समझ लेना चाहिये। जब हम कोई भला काम करें तो यह ‘हमारा कर्तव्य है’ ऐसा विचार करते हुए करना चाहिये। उसके लिये प्रशंसा मिले यह कभी नहीं सोचें तो अच्छा है। इससे एक तो प्रशंसा न मिलने पर निराशा नहीं होगी और काम भी अच्छा होगा।
संत कबीर संदेशः फल की चाहा में मन से काम नहीं होता
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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