समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, June 28, 2014

मद में डूबे लोगों को खुश रखना कठिन-भर्तृहरि नीति शतक पर आधारित चिंत्तन लेख(mad mein doobe logon ko khush rakhna kathin-A Hindu Hindi religion thought based on bhartrihari neeti shatak)



       विश्व के सभी देशों में करीब करीब राजतंत्र समाप्त हो चुका है।  कहीं पूर्ण लोकतंत्र है जहां वास्तव में जनता के बीच से प्रतिनिधि चुने जाते हैं तो कहीं तानाशाही है वहां भी लोकतांत्रिक प्रणाली होने का दावा जरूर किया जाता है। जहां लोकतंत्र हैं वहां भी जनप्रतिनिधि कालांतर में राजा की तरह व्यवहार करते हैं तो जहां तानाशाही है वहां भी कथित राजप्रमुख राजा की तरह स्थाई रूप से गद्दी पर विराजमान रहते हैं। आम आदमी की जिंदगी हमेशा ही कठिन होती है पर आजकल के समय में तो लगभग दुरूह हो गयी है। बढ़ती महंगाई, हिंसा, तथा भ्रष्टाचार ने आम आदमी को त्रस्त कर दिया है। ऐसे में हर आम इंसान सोचता है कि वह बड़े आदमी की चमचागिरी कर जीवन में शायद  कोई उपलब्धि प्राप्त कर ले। इस भ्रम में अनेक लोग बड़े लोगों की चाटुकारिता लगते हैं, मगर फायदा उसी को होता है जो दौलतमंदों के तलवे चाटने की हद तक जा सकता है। सच तो यह है कि कोई आदमी कितना भी दौलत, शौहरत या पद की ऊंचाई पर पहुंच जाये पर उसकी मानसिकता छोटी रहती है। ऐसे में उनकी चमचागिरी से सभी को कुछ हासिल नहीं होता इसलिये जहां तक हो सके अपने अंदर आत्मविश्वास लाकर जीवन में संघर्ष करना चाहिए।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
-----------------------------
दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
      हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है। हमारी अभिलाषायें और आकांक्षायें की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में बड़ा पद पाने की लालसा है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

      -लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगों  को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देते हैं तो केवल चाटुकारिता  के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर। इस संसार में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर उसके मद में डूबने से बच पाते हैं।  अधिकतर लोग तो अपनी शक्ति के अहंकार में अपने से छोटे आदमी को कीड़े मकौड़े जैसा समझने लगते हैं और उनकी चमचागिरी करने पर भी कोई लाभ नहीं होता।  अगर ऐसे लोगों की निंरतर सेवा की जाये तो भी सामान्य से कम प्रतिफल मिलता है।
      सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।इस संसार में प्रसन्नता से जीने का एक ही उपाय है कि अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए ही जीवन भर चलते रहें।  अपने से बड़े आदमी की चाटुकारिता से लाभ की आशा करना अपने लिये निराशा पैदा करना है।
--------------------------------
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Thursday, June 26, 2014

ज्ञान धारण करने के लिये योगाभ्यास करें-चाणक्य नीति के आधार पर चिंत्तन लेख(gyan dharan karne ke liye yogabhyas karen-A hindu hindi relgion thought based on chankya policy)



                 हमारे देश में संत परंपरा हमेशा रही है इसी कारण भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की धारा अनवरत बहती आयी है। यह अलग बात है कि इस पवित्र धारा में हाथ धोने का काम पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने हमेशा ही उठाया है। स्थिति यह रही है कि समाज की धर्मभीरुता को भ्रम धारा में बदलने का काम इन इन ठेकेदारों ने किया है।  ऐसे लोग प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के मनमोहक संदेश सुनाकर लोगों में अपनी धार्मिक गुरु की छवि बनाते हैं।  हम देख रहे हैं समाज में एक से एक प्रसिद्ध धार्मिक गुरु लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं।  उन्होंने बड़े बड़े विशाल सर्वसुविधाजनक वातानुकूलित आश्रम बना लिये हैं जहां उनके शिष्य उन्हें घेरे रहते हैं। जगह जगह सत्संग और समागम होते हैं। श्रीमद्भागवत कथा के लिये श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जमा होती है उस दृष्टि से हमारे देश का वातावरण स्वर्गमय होना चाहिये पर जब विषाक्त स्थितियों को देखते हैं तो भारी निराशा होती है। इसका कारण यह है कि लोग धार्मिक सत्संगों को भी मनोंरजन की दृष्टि से देखते हैं।  जिस तरह किसी धारावाहिक या फिल्म को देखते हुए लोग मनस्थिति में परिवर्तन का बोध करने के बाद अपनी दुनियां में खो जाते हैं वैसे ही सत्संग या समागम में शामिल होने के बावजूद अपने मन, विचार और व्यवहार में शुद्धता लाने का प्रयास नहीं करते।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
----------------
धर्माऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।
सा सर्वदैव तिष्ठेयत् को न मुच्येत बन्धनात्।।
               हिन्दी में भावार्थ-धर्म के विषय पर व्याख्यान सुनते, श्मशान में किसी के दाहसंस्कार में शामिल होने तथा किसी रोगी को छटपटाते देखकर किसी भी व्यक्ति के अंदर संसार के विषयों के प्रति वैराग्य का भाव पैदा होता है पर वहां से हटते ही वह फिर बंधन में फंस जाता है।
             इसका कारण यह है कि लोग मन, विचार, और देह पर पूरा नियंत्रण नहीं है।  वह वातावरण, संगत, खान पान तथा कर्म से प्रभावित होकर यंत्रवत जीवन जीते हैं। अनियंत्रित देह में चंचल मन उनके अंदर हमेशा ही तनाव पैदा किये रहता है। प्रेम, अहिंसा, सत्य और धर्म का उपदेश देने वाले बहुत हैं पर अंदर कैसे स्थापित हों यह कला केवल योग सिद्धों को ही आती है।
              श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि योग साधक त्रिगुणमयी माया को लांघ जाते हैं।  इसका आशय यह है कि योगाभ्यास से जीवन पर सहजता से नियंत्रण हो जाता हैं। सत्व, राजस तथा तामस गुण की पहचान होने पर मनुष्य आत्मचिंत्तन करता है।  ऐसा नहीं है वह इन तीन गुणों से मुक्त होता है पर पहचान होने की वजह से वह जल्द ही स्वयं को नियंत्रित कर लेता है।  उसकी यंत्रवत् योग बुंद्धि स्वतः ही सहज भाव पर चलने लगती है।  उसे कोई उपदेश मिले या न मिले वह धर्म पथ पर स्वयमेव चलने लगता है।  उसे मिला या दिया गया कोई ज्ञान एक कान से निकलकर दूसरे से बाहर नहीं जाता। जिन लोगों को अपने ज्ञान को अक्षुण्ण बनाकर सहजता जीवन जीना है उन्हें नियमित रूप से योगाभ्यास अवश्य करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Friday, June 13, 2014

चित्त और आत्मा के भेद को समझना जरूरी-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिन्तन लेख (chitta aur atma ke bhed ko samajhana jaroori-A hindu hindi relgion thought based on patanjali yog literature)



            स संसार में सारा खेल संकल्प का है।  संकल्प वह विचार हैं जो हम अपने चित्त में धारण करते हैं।  जब चित्त प्रसन्न हो तो सारा संसार सुखमय लगता है और अगर तनाव हो तो अपने चारों तरफ नरक व्याप्त लगता है। इस चित्त पर नियंत्रण की कला को योग कहा जाता है। हम जब अपने चित्त पर नियंत्रण कर लेते हैं तब जीवन के प्रति आत्मविश्वास पैदा होता है। भटकते हुआ चित्त हमें इतना कुंठित कर देता है कि हम कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकते।  इसलिये कहा जाता है कि जिसने चित्त पर नियंत्रण कर लिया उसने संसार जीत लिया।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
-----------------------------------
द्रष्टृदृश्यघोपरक्तं चितं सर्वार्थम्

           
हिन्दी में भावार्थ- द्रष्टा और दृश्य-इन दो रंगों से रंगा चित्त सभी अर्थवाला हो जाता है।
तदंसख्येयवासनाभिश्चिन्नमपि परार्थ संहृत्यकारित्वात।

           
हिन्दी में भावार्थ-वह चित्त असंख्येय वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे के लिए है क्योंकि वह सहकारिता के भाव से काम करने वाला है।
विशेषंषर्शिन आत्मभावभावनविनिवृत्तिः।।

           
हिन्दी में भावार्थ-चित्त और आत्मा के भेद को  प्रत्यक्ष करने वाले योगी की आत्मा सांसरिक विषयों के पार्टी  भावना से सर्वथा निवृत्त हो जाता  है।
तदा विवेनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।

           
हिन्दी में भावार्थ-उस समय चित्त विवेक की तरफ झुककर कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्राणि संसकारेभ्यः।

           
हिन्दी में भावार्थ-उसके अंतराल में दूसरे पदार्थों का ज्ञान पूर्वसंस्कारों से होता है।

      महर्षि पतंजलि का योग सूत्र संस्कृत में है और उसके हिन्दी अनुवाद का अर्थ इतना किल्ष्ट होता है कि सीधी भाषा में बहुत कम विद्वान उसकी व्याख्या कर पाते हैं। हम यहां सीधी सादी भाषा में कहें तो हमारा चित्त या बुद्धि इस देह के कारण है और उसे आत्मा समझना अज्ञान का प्रमाण है। हमारे मन और बुद्धि में विचारों का क्रम आता जाता है जो केवल सांसरिक विषयों से संबंधित होता है। अध्यात्मिक विषयों के लिये हमें अपने अंदर संकल्प धारण करना पड़ता है और जब हम आत्मा और मन का अंतर समझ लेंगे तो दृष्टा की तरह जीने का आनंद ले  पायेंगे।
      एक तो संसार का दृश्य है और दूसरा वह दृष्टा आत्मा है जिसके बीच में यह देह स्थित है। पंच तत्वों से बनी इस देह की मन, बुद्धि तथा अहंकार की प्रकृतियों को अहंता, ममता और वासना की भावनायें बांधे रहती हैं। हम दृष्टा हैं पर कर्तापन का अहंकार कभी यह बात समझने नहीं देता। तत्वज्ञान के अभाव मनुष्य को दूसरा चतुर मायावी मनुष्य चाहे जब जहां हांक कर ले जाता है। इस संसार दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो शासक हैं दूसरे जो शासित हैं। निश्चित रूप से शासक चतुर मायावी मनुष्यों की संख्या कम और शासित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है पर अगर तत्वज्ञान को जो समझ लें तो वह न तो शासक बनता है न शासित। योगी बनकर अपना जीवन आंनद से व्यतीत करता है।
      एक बात दूसरी यह भी है इस विश्व में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग और असहज योग। योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर जो बिना ज्ञान के चलते हैं वह सांसरिक विषयों में चक्कर में अपना जीवन तबाह कर लेते हैं और जो ज्ञानी हैं वह उसे संवारते रहते हुए सुख अनुभव करते हैं। अतः आत्मा और चित्त का भेद समझना जरूरी है।
      दूसरी बात हम समाधि या ध्यान के विषय में यह भी समझ लें कि जब हम उसमें लीन होने का प्रयास करते हैं तब हमारे अंदर विषयों का घेर आने लगता है। उनसे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उन विषयों से उत्पन्न विकार हैं जो उस समय भस्म होने आते हैं। जब वह पूरी तरह से भस्म होते हैं तब ध्यान आसानी से लग जाता है। ध्यान से जो मन को शांति मिलती है उससे बुद्धि में तीक्ष्णता आती है और प्रसन्न हो जाता है।
-------------------------



संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Thursday, June 05, 2014

दौलत का घमंड आदमी को भ्रष्ट कर देता है-विदुर नीति के आधार पर चिंत्तन लेख(dualat ka ghamand admi ko bhrasht kar deta hai-A hindi hindu religion thought based on vidur neeti)



      भारत में जैसे जैसे विकास बढ़ रहा है वैसे ही अपराध, दुर्घटनायें तथा आत्महत्या के प्रकरण भी बढ़ रहे हैं।  पहले हम पश्चिम में जिस प्रकार की दुर्घटनाओं के समाचार देखकर उंगलियां दबाते थे उसी प्रकार अब अपने देश में होने पर परेशान होते हैं।  एक बात निश्चित है कि जितना भौतिक विकास होता है उतना ही आदमी अध्यत्मिक ज्ञान से परे हो जाता है।  उसी दैहिक तथा मानसिक इंद्रियां बाहरी दृश्यों पर अधिक केंद्रित हो जाती हैं जिससे आत्म चिंत्तन तथा मनन की प्रक्रिया से वह दूर हो जाता है। तीव्रगति में मति मंद तथा विलासिता से कुंठित होती है यह हम देश के वर्तमान परिदृश्य से समझ सकते हैं।

विदुर नीति में कहा गया है कि
---------------------------
धर्मार्थोश्यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानगुः।
श्रीप्राणधनदारेभ्यः क्षिप्र स परिहीयते।।

           
हिन्दी में भावार्थ- जो मनुष्य धर्म और अर्थ इंद्रियों के वश में हो जाता है वह शीघ्र ही अपने ऐश्वर्य, प्राण, धन, स्त्री को अपने हाथ से गंवा बैठता है।
अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणमीनश्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्वर्यर्दिश्वर्याद भ्रश्यते हि सः।।

     हिन्दी में भावार्थ-अधिक धन का स्वामी होने भी इंद्रियों पर अधिकार करने की बजाय उसके वश में हो जाने वाला भी मनुष्य ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है।

      अनेक लोगों को यह लगता है कि अगर अधिक धन आ गया तो जैसे सारा संसार जीत लिया। इस भ्रम में अनेक लोग धन के कारण अनुशासहीनता पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि शीघ्र ही न केवल अपना वैभव गंवाते हैं बल्कि कहीं कहीं उनको शारीरिक हानि भी झेलनी पड़ती हैं। जीवन में दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन का होना जरूरी है। अधिक धन है तो भी समाज में सम्मान प्राप्त होता है पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि अनुशासनहीनता बरती जाये। ऐसे ढेर सारे उदाहरण है जिसमें अनेक धनपतियों की औलादें मदांध होकर ऐसे अपराधिक कार्य इस आशय से करती हैं कि उनके पालक धन से कानून खरीद लेंगे। ऐसा होता भी है पर उसकी एक सीमा होती है जहां उसका अतिक्रमण होता है वहां फिर सींखचों के अंदर भी जाना पड़ता है। इस समय ऐसा दौर भी है जिसमें धनपति स्वयं और उनकी औलादें समाज में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिये अनुशासन हीनता दिखाते हैं। धन उनकी आंखों बंद कर देता है और उनको यह ज्ञान नहीं रहता कि आजकल प्रचार माध्यम सशक्त हो गये हैं जिनकी वजह से हर समाचार बहुत जल्दी ही लोगों तक पहुंचता है। भले ही यह प्रचार माध्यम भी धनपतियों के हैं पर उनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये सनसनीखेज खबरों की आवश्यकता होती है और ऐसे में किसी धनी, प्रतिष्ठित या बाहुबली द्वारा किसी प्रकार के अपराध की जानकारी मिलने पर उसे जोरदार ढंग से प्रसारित भी करते हैं।
      कहने का तात्पर्य यह है कि अब वह समय चला गया जब धन और वैभव का प्रदर्शन करने के लिये अनुशासनहीनता बरतना आवश्यक लगता था।  आदमी के पास चाहे कितना भी धन हो उसे जीवन में अनुशासन अवश्य रखना चाहिये। याद रहे धन की असीमित शक्ति है पर देह की सीमायें हैं और किसी प्रकार की अनुशासनहीनता का दुष्परिणाम उसे ही भोगना पड़ता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें