हमारे देश में संत परंपरा हमेशा रही है इसी
कारण भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की धारा अनवरत बहती आयी है। यह अलग बात है कि इस
पवित्र धारा में हाथ धोने का काम पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने हमेशा ही उठाया है।
स्थिति यह रही है कि समाज की धर्मभीरुता को भ्रम धारा में बदलने का काम इन इन
ठेकेदारों ने किया है। ऐसे लोग प्राचीन
धार्मिक ग्रंथों के मनमोहक संदेश सुनाकर लोगों में अपनी धार्मिक गुरु की छवि बनाते
हैं। हम देख रहे हैं समाज में एक से एक
प्रसिद्ध धार्मिक गुरु लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। उन्होंने बड़े बड़े विशाल सर्वसुविधाजनक
वातानुकूलित आश्रम बना लिये हैं जहां उनके शिष्य उन्हें घेरे रहते हैं। जगह जगह
सत्संग और समागम होते हैं। श्रीमद्भागवत कथा के लिये श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जमा
होती है उस दृष्टि से हमारे देश का वातावरण स्वर्गमय होना चाहिये पर जब विषाक्त
स्थितियों को देखते हैं तो भारी निराशा होती है। इसका कारण यह है कि लोग धार्मिक
सत्संगों को भी मनोंरजन की दृष्टि से देखते हैं।
जिस तरह किसी धारावाहिक या फिल्म को देखते हुए लोग मनस्थिति में परिवर्तन
का बोध करने के बाद अपनी दुनियां में खो जाते हैं वैसे ही सत्संग या समागम में
शामिल होने के बावजूद अपने मन, विचार और व्यवहार में शुद्धता लाने का प्रयास
नहीं करते।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि----------------धर्माऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।सा सर्वदैव तिष्ठेयत् को न मुच्येत बन्धनात्।।हिन्दी में भावार्थ-धर्म के विषय पर व्याख्यान सुनते, श्मशान में किसी के दाहसंस्कार में शामिल होने तथा किसी रोगी को छटपटाते देखकर किसी भी व्यक्ति के अंदर संसार के विषयों के प्रति वैराग्य का भाव पैदा होता है पर वहां से हटते ही वह फिर बंधन में फंस जाता है।
इसका कारण यह है कि लोग मन, विचार, और देह पर पूरा नियंत्रण नहीं है। वह वातावरण, संगत, खान पान तथा कर्म से प्रभावित होकर यंत्रवत जीवन जीते हैं। अनियंत्रित देह
में चंचल मन उनके अंदर हमेशा ही तनाव पैदा किये रहता है। प्रेम, अहिंसा, सत्य और धर्म का उपदेश देने वाले बहुत हैं पर
अंदर कैसे स्थापित हों यह कला केवल योग सिद्धों को ही आती है।
श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि योग साधक
त्रिगुणमयी माया को लांघ जाते हैं। इसका
आशय यह है कि योगाभ्यास से जीवन पर सहजता से नियंत्रण हो जाता हैं। सत्व, राजस तथा तामस गुण की पहचान होने पर मनुष्य आत्मचिंत्तन करता है। ऐसा नहीं है वह इन तीन गुणों से मुक्त होता है
पर पहचान होने की वजह से वह जल्द ही स्वयं को नियंत्रित कर लेता है। उसकी यंत्रवत् योग बुंद्धि स्वतः ही सहज भाव पर
चलने लगती है। उसे कोई उपदेश मिले या न
मिले वह धर्म पथ पर स्वयमेव चलने लगता है।
उसे मिला या दिया गया कोई ज्ञान एक कान से निकलकर दूसरे से बाहर नहीं जाता।
जिन लोगों को अपने ज्ञान को अक्षुण्ण बनाकर सहजता जीवन जीना है उन्हें नियमित रूप
से योगाभ्यास अवश्य करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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