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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, June 13, 2014

चित्त और आत्मा के भेद को समझना जरूरी-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिन्तन लेख (chitta aur atma ke bhed ko samajhana jaroori-A hindu hindi relgion thought based on patanjali yog literature)



            स संसार में सारा खेल संकल्प का है।  संकल्प वह विचार हैं जो हम अपने चित्त में धारण करते हैं।  जब चित्त प्रसन्न हो तो सारा संसार सुखमय लगता है और अगर तनाव हो तो अपने चारों तरफ नरक व्याप्त लगता है। इस चित्त पर नियंत्रण की कला को योग कहा जाता है। हम जब अपने चित्त पर नियंत्रण कर लेते हैं तब जीवन के प्रति आत्मविश्वास पैदा होता है। भटकते हुआ चित्त हमें इतना कुंठित कर देता है कि हम कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकते।  इसलिये कहा जाता है कि जिसने चित्त पर नियंत्रण कर लिया उसने संसार जीत लिया।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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द्रष्टृदृश्यघोपरक्तं चितं सर्वार्थम्

           
हिन्दी में भावार्थ- द्रष्टा और दृश्य-इन दो रंगों से रंगा चित्त सभी अर्थवाला हो जाता है।
तदंसख्येयवासनाभिश्चिन्नमपि परार्थ संहृत्यकारित्वात।

           
हिन्दी में भावार्थ-वह चित्त असंख्येय वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे के लिए है क्योंकि वह सहकारिता के भाव से काम करने वाला है।
विशेषंषर्शिन आत्मभावभावनविनिवृत्तिः।।

           
हिन्दी में भावार्थ-चित्त और आत्मा के भेद को  प्रत्यक्ष करने वाले योगी की आत्मा सांसरिक विषयों के पार्टी  भावना से सर्वथा निवृत्त हो जाता  है।
तदा विवेनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।

           
हिन्दी में भावार्थ-उस समय चित्त विवेक की तरफ झुककर कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्राणि संसकारेभ्यः।

           
हिन्दी में भावार्थ-उसके अंतराल में दूसरे पदार्थों का ज्ञान पूर्वसंस्कारों से होता है।

      महर्षि पतंजलि का योग सूत्र संस्कृत में है और उसके हिन्दी अनुवाद का अर्थ इतना किल्ष्ट होता है कि सीधी भाषा में बहुत कम विद्वान उसकी व्याख्या कर पाते हैं। हम यहां सीधी सादी भाषा में कहें तो हमारा चित्त या बुद्धि इस देह के कारण है और उसे आत्मा समझना अज्ञान का प्रमाण है। हमारे मन और बुद्धि में विचारों का क्रम आता जाता है जो केवल सांसरिक विषयों से संबंधित होता है। अध्यात्मिक विषयों के लिये हमें अपने अंदर संकल्प धारण करना पड़ता है और जब हम आत्मा और मन का अंतर समझ लेंगे तो दृष्टा की तरह जीने का आनंद ले  पायेंगे।
      एक तो संसार का दृश्य है और दूसरा वह दृष्टा आत्मा है जिसके बीच में यह देह स्थित है। पंच तत्वों से बनी इस देह की मन, बुद्धि तथा अहंकार की प्रकृतियों को अहंता, ममता और वासना की भावनायें बांधे रहती हैं। हम दृष्टा हैं पर कर्तापन का अहंकार कभी यह बात समझने नहीं देता। तत्वज्ञान के अभाव मनुष्य को दूसरा चतुर मायावी मनुष्य चाहे जब जहां हांक कर ले जाता है। इस संसार दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो शासक हैं दूसरे जो शासित हैं। निश्चित रूप से शासक चतुर मायावी मनुष्यों की संख्या कम और शासित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है पर अगर तत्वज्ञान को जो समझ लें तो वह न तो शासक बनता है न शासित। योगी बनकर अपना जीवन आंनद से व्यतीत करता है।
      एक बात दूसरी यह भी है इस विश्व में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग और असहज योग। योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर जो बिना ज्ञान के चलते हैं वह सांसरिक विषयों में चक्कर में अपना जीवन तबाह कर लेते हैं और जो ज्ञानी हैं वह उसे संवारते रहते हुए सुख अनुभव करते हैं। अतः आत्मा और चित्त का भेद समझना जरूरी है।
      दूसरी बात हम समाधि या ध्यान के विषय में यह भी समझ लें कि जब हम उसमें लीन होने का प्रयास करते हैं तब हमारे अंदर विषयों का घेर आने लगता है। उनसे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उन विषयों से उत्पन्न विकार हैं जो उस समय भस्म होने आते हैं। जब वह पूरी तरह से भस्म होते हैं तब ध्यान आसानी से लग जाता है। ध्यान से जो मन को शांति मिलती है उससे बुद्धि में तीक्ष्णता आती है और प्रसन्न हो जाता है।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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