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Friday, September 12, 2014

भर्तृहरि नीति शतक-राहु बृहस्पति से बैर नहीं लेता(bhartrihari neeti shatak-rahju brihaspati se bair nahin leta)



            हा जाता है कि धनी लोगों की संघर्ष तथा पाचन शक्ति अत्यंत क्षीण होती है।  आज जब हम विश्व में भौतिक प्रगति का दावा कर रहे हैं तब यह बात हमारे विचार में नहीं आती कि मनुष्य दैहिक तथा मानसिक रूप से शक्तिहीन होता जा रहा है। खासतौर से युवा वर्ग में आत्मविश्वास की भारी कमी हो गयी है। उनको लगता है कि शारीरिक श्रम से अब अधिक धन नहीं कमाया जा सकता। इसलिये वह किसी व्यवसाय का स्वामी बनने की बजाय कहीं किसी नौकरियां ढूंढ रहे हैं।  जो छोटे व्यवसाय में लगे हैं उन्हें लगता है कि वह समाज में सम्मानजनक छवि वाले नहीं माने जाते हैं।  आधुनिक पूंजीतंत्र ने समूचे समाज का निंयत्रण चंद हाथों में सौंप दिया है जिसकी वजह से से धन, पद और बल संपन्न लोगों के द्वार पर याचकों की भीड़ बढ़ा दी है।  जिन्होंने भौतिक क्षेत्र का शिखर पा लिया उसमें मद न आये यह संभव नहीं है इसलिये उनसे समाज सेवा की अपेक्षा करना भारी अज्ञान का प्रमाण है।


भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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सन्तपन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषास्तान्प्रत्येष विशेष विक्रमरुची राहुर्न वैरायते।
द्वावेव प्रसते दिवाकर निशा प्रापोश्वरौ भास्करौ भ्रातः! पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषाकृतिः।।

     हिन्दी में भावार्थ-आसमान में बृहस्पति समेत अनेक शक्तिशाली ग्रह हैं किन्तु पराक्रम में दिलचस्पी रखने वाला राहु उनसे कोई लड़ाई मोल नहीं लेता क्योंकि वह तो पूर्णिमा और अमावस्या के दिन अति देदीप्यमान सूर्य तथा चंद्र को ही ग्रसित करता है।
असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्यारूया वतिर्मलिनमसुभंगेऽप्यसुकरं।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां सतां केनोद्दिष्टं विषमसिधाराव्रतमिदम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-सदाशयी मनुष्यों के लिये कठोर असिधारा व्रत का आदेश किसने दिया? जिसमें दुष्टों से किसी प्रकार की प्रार्थना नहीं की जाती। न ही मित्रों से धन की याचना की जाती है। न्यायिक आचरण का पालन किया जाता है। मौत सामने आने पर भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महान पुरुषों के आचरण की ही अनुसरण किया जाता है।

     हर मनुष्य को अपने पराक्रम में ही यकीन करना चाहिए न कि अपने लक्ष्यों को दूसरों के सहारे छोड़कर आलस्य बैठना चाहिए। इतना ही नहीं मित्रता या प्रतिस्पर्धा हमेशा अपने से ताकतवर लोगों की करना चाहिये न कि अपने से छोटे लोगों पर अन्याय कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए।
      अनेक मनुष्य अपने आसपास के लोगों को देखकर अपने लिये तुच्छ लक्ष्य निर्धारित करते हैं। थोड़ा धन आ जाने पर अपने आपको धन्य समझते हुए उसका प्रदर्शन करते हैं। यह सब उनके अज्ञान का प्रमाण है। अगर स्थिति विपरीत हो जाये तो उनका आत्मविश्वास टूट जाता है और दूसरों के कहने पर अपना मार्ग छोड़ देते हैं। अनेक लोग तो कुमार्ग पर चलने लगते हैं। सच बात तो यह है कि हर मनुष्य को भगवान ने दो हाथ, दो पांव तथा दो आंखों के साथ विचारा करने के लिये बुद्धि भी दी है। अगर मनुष्य असिधारा व्रत का पालन करे-जिसमें दुष्टों ने प्रार्थना तथा मित्रों से धना की याचना न करने के साथ ही किसी भी स्थिति में अपने सिद्धांतों का पालन किया जाता है-तो समय आने पर अपने पराक्रम से वह सफलता प्राप्त करता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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