आमतौर से सामान्य भाषा में स्मृति तथा संस्कार एकरूप नहीं होते। स्मृतियों को पुराने विषय, व्यक्ति,
दृश्य अथवा अनुभूतियों के स्मरण का भंडार माना जाता है
जबकि संस्कार मस्तिष्क में स्थापित मानवीय व्यवहार के स्थापित सिद्धांतों के रूप में
समझा जाता है। पतंजलि योग का अध्ययन करें तो लगता है कि संस्कार स्मृति का ही एक भाग
है। जीवन व्यवहार के सिद्धांत अंततः स्मृति
समूह का ही वह भाग है जो मानव मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं।
पतंजलि योग सूत्र में कहा गया है--------------------------जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानष्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्।।
हिन्दी में भावार्थ-पतंजलि योग सूत्र के अनुसार जाति, देश काल इन तीनों से संपर्क टूटने पर भी स्वाभाविक कर्म संस्कारों में बाधा नहीं आती क्योंकि स्मृति और संस्कारों का एक ही रूप होता है।
हम इस श्लोक में
योग के संस्कारिक रूप को समझ सकते हैं। जब मनुष्य बच्चा होता है तब उसके अपने घर
परिवार, रिश्तेदारी, विद्यालय तथा पड़ौस के लोगों से स्वाभाविक संपर्क बनते हैं। वह उनसे संसार
की अनेक बातें ऐसी सीखता है जो उसके लिये नयी होती हैं। वह अपने मन और बुद्धि के तत्वों में उन्हें स्वाभाविक रूप
से इस तरह स्थापित करता है जीवन भर वह उसकी स्मृतियों में बनी जाती हैं। कहा भी जाता है
कि बचपन में जो संस्कार मनुष्य में आ गये फिर उनसे पीछा नहीं छूटता और न छोड़ना चाहिए
क्योंकि वह कष्टकर होता है।
यही कारण है कि माता पिता तथा गुरुओं से यह
अपेक्षा की जाती है कि वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें।
संभव है बाल्यकाल में अनेक बच्चे उनकी शिक्षा पर ध्यान न दें
पर कालांतर में जब वह उनकी स्थाई स्मृति बनती है तब वह उनका मार्ग प्रशस्त
करती है। इसलिये बच्चों के लालन पालन में मां की भूमिका सदैव महत्वपूर्ण
मानी गयी है क्योंकि बाल्यकाल में वही अपने बच्चे के समक्ष सबसे अधिक
रहती है और इसका परिणाम यह होता है कि कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है जो अपनी
मां को भूल सके।
इसलिये हमारे अध्यात्मिक
संदेशों में अच्छी संगत के साथ ही अच्छे वातावरण में भी निवास बनाने की बात
कहीं जाती है। अक्सर लोग कहते हैं कि पास पड़ौस का प्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता पर यह गलत है।
अनेक बच्चे तो इसलिये ही बिगड़ जाते हैं क्योंकि उनके बच्चे आसपास के गलत वातावरण को अपने अंदर स्थापित कर लेते हैं।
यही नहीं आज के अनेक माता पिता बाहर जाकर कार्य करते हैं और सोचते हैं
कि उनका बच्चा उनकी तरह
ही अच्छा निकलेगा तो यह भ्रम भी उनको नहीं पालना चाहिये क्योंकि किसी भी
मनुष्य की प्रथम गुरु माता की कम संगत बच्चों को अनेक प्रकार के संस्कारों
से वंचित कर देती है। ऐसे लोग सोचते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर ठीक
हो जायेगा या हम उसे संभाल लेंगे तो यह भी भ्रामक है क्योंकि जो संस्कार
कच्चे दिमाग
में स्मृति के रूप में स्थापित करने का है वह अगर निकल गया तो फिर अपेक्षायें करना निरर्थक है। युवा
होने पर दिमाग पक्का हो जाता है और सभी जानते हैं कि पक्की मिट्टी के खिलोने
नहीं बन सकते-वह तो जैसे
बन गये वैसे बन गये। दरअसल
हम जिससे संस्कार कहते हैं वह प्रारम्भिक काल में स्थापित स्मृतियों का विस्तार ही हैं इसलिये अगर
हम अपेक्षा करते हैं
कि हमारे बच्चे आगे चलकर वह काम करें जो हम स्वयं चाहते हैं तो उसकी शिक्षा
पहले ही देना चाहिए। यह
स्मृतियां इस तरह की होती हैं कि देश, काल तथा जाति से कम संपर्क रहने न बिल्कुल न होने पर भी बनी
रहती हैं और मनुष्य अपने
संस्कारों से भ्रष्ट नहीं होता है अगर किसी लोभवश वह अपना पथ छोड़ता भी
है तो उसे भारी कष्ट उठाना पड़ता है और फिर अपने स्थान पर वापस आता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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