हमारे देश में भौतिक
साधनों से यज्ञ करने को अधिक महत्व दिया जाता
है। दरअसल भौतिक यज्ञ प्रत्यक्ष
दिखता है इससे दूसरों के सामने अपनी धार्मिक छवि का निर्माण करने का सहज अवसर
मिलता है। यह देखा भी गया है कि धन के बल पर किये गये इस तरह के धार्मिक प्रदर्शन
करने वालों का काला चरित्र आम लोगों की आंखों से ओझल ही रहता है। जिनका चरित्र
काला नहंी भी हो वह भी कोई अन्य नैतिक कार्यक्रम करने की बजाय इस तरह धन खर्च कर
धार्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी
उज्जवल छवि बनाने का प्रयास करते हैं। यहां तक तो ठीक है पर जब इस तरह धन खर्च कर
धार्मिक कार्यक्रम करने वाले अन्य लोगों को भी ऐसे काम करने के लिये उकसाने का
प्रयास करते हैं और न करने पर उनके निंदक बन जाते हैं।
इतना ही नहीं हमारे देश
में अनेक कथित गुरु भी हैं जो अपने शिष्यों को इस तरह के भौतिक यज्ञों के लिये प्रेरित
करते हैं। उनके शिष्य उनसे भी दो कदम आगे जाकर भौतिक यज्ञ न करने वालों को नास्तिक
या भक्तिहीन कहकर मजाक उड़ाते हैं। इस तरह
एक धार्मिक द्वंद्व में समाज बरसों से फंसा हुआ है। भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे होते समाज में यह
द्वंद्व अनेक बार कई लोगों के सामने दुविधाजनक स्थिति पैदा कर देता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
..........................................
यथायथा हि पुरुषः शास्त्रंसमधिगच्छति।
तथातथा विंजानाति विज्ञानं चास्य रोचते।।
हिन्दी
में भावार्थ-जैसे जैसे
मनुष्य शास्त्र का अभ्यास करता है, उसे
तत्वज्ञान प्राप्त होने लगता है। इससे उसकी रुचि अध्ययन में बढ़ती जाती है।
ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा।
नृचज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्।।
हिन्दी
में भावार्थ-ऋषि यज्ञ (वेद
अध्ययन), देव यज्ञ (मूर्ति पूजा),
भूत यज्ञ (हवन आदि करना), नृयज्ञ (अतिथि सत्कार), तथा पितृयज्ञ (श्राद्ध तथा तर्पण) इन पांच यज्ञों का
अनुष्ठान करते रहना चाहिये
एतानेके महायज्ञन्यज्ञशास्त्रविदो जनाः।
अनहिमानाः सततमिन्द्रियेष्ेवे जुहृति।।
हिन्दी में भावार्थ-शास्त्रों के ज्ञाता कुछ गृहस्थ इन यज्ञों को न करन
पांचों इंद्रियों पर-नेत्र, नासिका,
जीभ, त्वचा ताकि कान पर संयम-नियंत्रण करते हुए पंच यज्ञ
करते हैं।
देश में कई ऐसे गृहस्थ हैं
जो इस तरह के भौतिक यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान को
श्रेष्ठ मानते हैं। आयु, समय तथा आवश्यकता होने पर विद्याध्ययन,
अतिथि सत्कार तथा अन्य परोपकार के कार्य
करना चाहिये पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि अन्य प्रकार के भौतिक यज्ञों के लिये
सभी गृहस्थों पर दबाव डाला जाये। सच बात
तो यह है कि अपनी देह की इंद्रियों पर नियंत्रण करना भी एक तरह से यज्ञ है। अपनी आंखों से सदैव अच्छे दृश्य देखने का
प्रयास करना, कानों से केवल मधुर
स्वर सुनना, दुर्गंध से दूर होकर
सुगंध की तरफ जाना, जीभ के स्वाद
का ध्यान रखने की बजाय सुपाच्य वस्तुओं को ग्रहण करना तथा अनांवश्यक रूप से अपनी
देह को कठिन मार्गो पर ले जाने की बजाय अनुकूल मौसम, सुविधाजनक मार्ग तथा शुद्ध वातावरण के अनुसार अपने पग
बढ़ाने के साथ ही अपने हाथ उन्हीं कामों में डालना चाहिये जो तनाव पैदा करने वाले न
हो।
कहने का अभिप्राय यह है कि
हर मनुष्य को अपनी देह, मन और
विचारों के अनुकूल कार्यों पर ही ध्यान देना एक तरह से ज्ञान यज्ञ है। दूसरों को लाभ पहुंचाकर वाह वाही लूटने से
अच्छा है दूसरों को हानि पहुंचाने के प्रयास से बचा जाये। हम यहां भौतिक यज्ञों की आलोचना नहीं कर रहे पर
इतना जरूर कहना चाहते हैं कि ज्ञान यज्ञ करने वालों के प्रति ऐसे लोगों को
दुर्भावना नहीं रखना चाहिये जो सकाम भक्ति करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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