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Monday, May 06, 2013

संत कबीर दास दर्शन-भक्ति में होती है वीरता की आवश्यकता (sant kabir sandesh-bhakti mieh hotee hai virta ki aavshyakata)



             इतिहास ने हमेशा ही दो तरह के वीरों को अपने पृष्ठों में समान स्थान दिया है। एक तो वह जो समाज हित के लिये अपने प्राण न्यौछावर कर देते हैं। दूसरे वीर वह हैं जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर परमात्मा की भक्ति की। सच बात तो यह है कि हमारे देश में वीर होने के दावे बहुत किये जाते हैं पर समाज के लिये प्राणों की बाजी लगाने वाले बहुत कम मिलते हैं। उससे भी कम वीर तो  भक्ति के क्षेत्र में दिखते हैं।  देखा जाये तो जोश में आने पर अस्त्र शस्त्र हाथ  में  लेकर किसी पर प्रहार करने में समय नहीं लगता। वैसे भी अस्त्र शस्त्र हाथ में आते ही मनुष्य के मन मस्तिष्क का हरण कर अपना काम करते हैं। युद्ध का उन्माद कुछ पल रहता है और उसमें निर्णय भी तत्काल हो जाता है।  इसके विपरीत सांसरिक विषयों का त्याग  कर परमात्मा की भक्ति में अधिक समय लगता है और उसके लिये जो धैर्य धारण करना होता है वह अधिक शक्ति होने पर ही संभव हो पाता है।  भक्ति में शक्ति प्राप्त करने में  बरसों लग जाते हैं।
संत कबीर कहते हैं कि
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तीर तुपक सोजो लडै़, सो तो सूर न होय।
माया तजि भक्ति करै,, सूर कहावै सोय।।
      हिन्दी में भावार्थ-अस्त्र शस्त्र से जो लड़ते हैं वह वीर नहीं होते। माया का मोह त्याग कर जो भक्ति करते हैं वही सच्चे वीर हैं।
चित चेतन ताजी करे, लौ की करै लगाम।
शब्द गुरु का ताजना, पहुंचै संग सुठाम।।
         हिन्दी में भावार्थ-अपने चित को घोड़ा बनाकर उसकी लगाकर कसना चाहिये। गुरु के शब्द को चाबुक बनाकर अपनी लक्ष्य की तरफ बढ़ें।
 
       उस दिन एक योग शिक्षक कह रहे थे कि कहीं शिविर लगाने पर प्रारंभ में अनेक लोग आते हैं पर धीरे धीरे उनकी संख्या अत्यंत कम हो जाती है। अनेक लोग अनियमित रूप से आते हैं। यहां तक कि सर्दी में शिविर एकदम मृतप्रायः हो जाता है। उनके कथन का सार सत्य यही था कि योग विधा के लिये जिस दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है वह आमतौर से लोगों में कम ही देखने को मिलती है।

  हम सभी जानते हैं कि  योग साधना देह, मन और विचारों की शुद्ध करती है।  इसका ज्ञान होने के बावजूद लोग एक नियमित आदत के रूप में इसे अपना नहीं  रहे तो इसका कारण यह है कि वह इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं हो पता है। प्रतिदिन शराब पीने वाले बहुत मिल जाते हैं पर योगसाधना और ध्यान करने वाले कहीं कहीं मिलते हैं।  इंद्रियों पर नियंत्रण कर योग साधना में नियमितता बनाये रखने के लिये जिस त्याग भाव की आवश्यकता है वह केवल भक्ति वीरों में ही हो सकती है।  अस्त्र शस्त्र हाथ में होने पर क्षणिक आवेश में कोई भी आदमी आक्रामक हो जाता है उसमें कोई गुण जैसी बात नहीं है जबकि निष्काम भक्ति, योगसाधना अथवा ध्यान में जिस धीरज की आवश्यकता है वह केवल वीरों में ही दिखती है।  विषयों का त्याग सहज नहीं है और जो इसका त्याग कर भक्ति करना ही वीरता का प्रमाण है।  इसके लिये  दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है जिसे केवल वीर ही धारण कर सकते हैं।          

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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1 comment:

vandana gupta said...

भक्ति में भी वीरता का दर्शन …………अदभुत

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