आजकल अंग्रेजी
शिक्षा पद्धति के कारण लोगों में भारतीय अध्यात्म ज्ञान का अभाव हो गया है। योग संस्कृति जगह भोग संस्कृति ने अपनी जगह
बना ली है। अंग्रेजी पद्धति किसी को कथित रूप से दृश्यव्य रूप से सभ्रांत तो बना सकती
है पर मानसिक रूप से सभ्य नहीं बना सकती है। मनुष्य में स्वाभाविक रूप से अंहंकार का
भाव होता है। दूसरी बात यह कि हर मनुष्य अपने आपको धर्मभीरु प्रदर्शित करने का प्रयास
भी खूब करता है। ऐसे में बिना पूछे ज्ञान बघारने वाले कदम कदम पर मिल जाते हैं। किताबों
से ज्ञान पढ़ने वाले बहुत हैं पर ज्ञान को आचरण में लाने वाले विरले ही मिलते हैं। इसलिये
किसी से धर्म विषयक बहस करना एकदम निरर्थक हैं।
स्वयं को ज्ञानी कहलाने की इच्छा करने वाले व्यक्ति के सामने कभी कोई अध्यात्म्कि
तर्क रखा जाये तो वह क्रोध में झगड़ा करने लगता
है। इसलिये ज्ञानियों को कभी सार्वजनिक बहस में भाग लेना ही लहीं चाहिये।
दास मलूक के दर्शन के अनुसार
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‘मलूक’ बाद न कीजिए, क्रोध देय बहाय।
हार मानु अनजान से, बक बक मरै बलाय।।
सामान्य हिन्दी
में भावार्थ-यदि कोई अज्ञानी बहस करे
तो उसके सामने अज्ञानी बन जाओ। अज्ञानियों के मन में अपने को ज्ञानी साबित करने की
भारी ललक होती है और चुनौती मिल जाने पर क्रोध में आकर लड़ने लगते हैं।
औरहि चिन्ता करन दे, तू मत मारे आह।
जाके मोदी राम से, ताहि का परवाह।
सामान्य हिन्दी
में भावार्थ-दूसरों को चिन्ता करने
दो स्वयं कभी भी आह न भरो। जिसके भंडारक राम
हैं उसे भला किस बात की चिन्ता होती है।
ज्ञानी
मनुष्य को दूसरे को सुधारने की चिंता करने की बजाय अपनी मस्ती में मस्त रहना चाहिये। इस संसार में सभी का भंडार भरने वाले राम हैं। अज्ञानियों
की तरह रोजी रोटी की चिंता कर अपना समय नष्ट न करते हुए रचनात्मक कार्यों में लगे रहना
चाहिये। अध्यात्मिक भाव से जीवन में प्रसन्नता
का संचार होता है इसलिये समय समय भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन अवश्य करना चहिये। चिंता या बहसें करने से कोई न समस्या हल होती है
न ही निष्कर्ष निकलता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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