जब भारत में कंप्यूटर का आगमन हो
रहा था तब नयी पीढ़ी के अनेक युवक युवतियों ने इसमें महारथ प्राप्त कर लिया। इस कारण उन्हें रोजगार के नये अवसर मिले। तब अपने से वरिष्ठ लोगों को काम सिखाने का दायित्व
भी उन पर आया। आज भी अनेक लोग ऐसे हैं जिन्हें
अपनी से छोटी आयु के लोगों के सामने मोबाइल,
कंप्यूटर या गाड़ी चलाना
सिखाने के लिये अपने से सामने याचना करनी पड़ती
है।
एक बार एक सज्जन ने अपने बेटे की
आयु वाले एक युवक से कंप्यूटर सीखना प्रारंभ किया। वह उस युवक को ‘सर’ कहकर संबोधित करने लगे। युवक ने इस संबोधन से अपने आपको असहज अनुभव करते
हुए उनसे कहा-‘‘सर, आप
मुझसे से आयु में बड़े हैं। कृपया मुझे नाम लेकर बुलायें।’
उन सज्जन ने जवाब दिया-‘‘आप मेरी आयु देखकर मुझे सर
का संबोधन दे रहे हैं यही बहुत है पर मैं आपसे कंप्यूटर सीख रहा हूं इसलिये नाम लेकर
कभी नहीं बुला सकता। इस विषय में आप मेरे गुरु
हैं। यह मेरे संस्कारों में नहीं है कि अपने गुरु का नाम लूं। दूसरा यह कि कोई अगर आगे भी आयु में बड़ा आपको ‘सर’ का संबोधन दे तो उसे रोके
नहीं। आप कंप्यूटर के विषय में गुरु पद पर प्रतिष्ठत हैं।
यह तो वर्तमान समय की बात है। पहले
भी अनेक ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने छोटी आयु में ही तत्वज्ञान प्राप्त कर अपने से बड़ी
आयु के लोगों में अपनी सम्मानीय छवि बनाई।
भगवान श्रीकृष्ण भीष्म पितामह, आचार्य द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा विदुर से आयु में छोटे
थे पर तत्वज्ञान होने के कारण उनकी दृष्टि में सम्मानीय थे।
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाऽप्यधीयास्तं देवाः स्थाविरं विदुः।।
हिन्दी में भावार्थ-सिर के बाल श्वेत हो जाने से कोई बड़ा नहीं होता। अगर ज्ञान प्राप्त
कर ले तो युवा व्यक्ति भी बुद्धिमान की तरह सम्मानीय हो जाता है।
अध्यापयामास पितृन शिशुङ्गिरसः कविः।
पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्।।
हिन्दी में भावार्थ-अङ्गिरस के वेदज्ञाता
पुत्र ने अपनी आयु से भी बड़े रिश्तेदारों को विद्या का दान दिया और उन्हें ‘हे पु़त्र’ कहकर संबोधित किया।
कहने का अभिप्राय यह है कि सीखने
की उम्र नहीं होती और सिखाने वाला व्यक्ति हमेशा ही आदर का पात्र होता है। आध्यात्मिक
ज्ञान का अध्ययन करने का सुअवसर तथा सुसमय विरलों को ही मिलता है। जिनको मिलता है उनमें
भी बहुत कम उसका सदुपयोग कर पाते हैं। जो तत्वज्ञान
में पारंगत होते हैं वह स्वयमेव गुरु पद पर प्रतिष्ठत हो जाते हैं। उनके आचरण, व्यवहार, कर्म, वाणी तथा विचार स्वतः उनके ज्ञान
का प्रमाण देते हैं। उन्हें प्रचार की आवश्यकता नहीं होती। सांसरिक विषयों में लिप्त
रहना हर मनुष्य का स्वभाव होता है। उसे त्याग कर जो अध्यात्मिक ज्ञान की दीप जलाते
हैं वही महान होते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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