अनेक लोग सामान्य व्यवहार में अपनी बात कहने में संकोच करते हैं। उनमें संकोच इस कदर होता है कि वह सही समय पर भी सही बात नहीं कहते। मन ही मन उनको घुटन होती है पर बाहर कहने में संकोच के कारण व्यर्थ तनाव झेलते हैं। इसके विपरीत स्पष्टवादी लोग भले ही झूठी प्रशंसा बटोरने की बजाय अपनी बात कह देते हैं। इसके लिये उनको आलोचना भी झेलनी पड़ती है मगर वह तनावमुक्त होकर जीवन व्यतीत करते हैं। कहा भी जाता है कि अगर अपने मन में कोई बात हो वह कह देनी चाहिये। इतना ही नहीं अगर कोई समस्या हो तो उसके हल के लिये लोगों को आवाज देना चाहिये। यह सही है कि आजकल लोगों का स्वभाव मदद करने का नहीं रहा पर सभी एक जैसे हैं यह बात सोचना भी गलत है। अपने लोग भले ही मुंह फेर जायें पर संभव है कि शिकायत पर शोर करने से कोई मदद करने आ जाये। अभी भी अगर संसार चल रहा है तो वह ऐसे लोगों की वजह से बना हुआ है तो अपने पराये का विचार किये बिना दूसरे की मदद करते हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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धन-धान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तालजः सुखी भवेतु।।
हिन्दी में भावार्थ-धन और धान्य के व्यवहार, कहीं से विद्या प्राप्त तथा खाने पीने के साथ हिसाब में संकोच न करने वाला हमेशा सुखी रहता है। ------------------
धन-धान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तालजः सुखी भवेतु।।
किसी से धन या अन्न का व्यवहार हो तो उसके सामने किसी प्रकार का संकोच
नहीं करना चाहिये। अपना उधार या वेतन मांगने में कभी शर्म अनुभव करना ठीक
नहीं है। जब प्रतिफल की आशा में कोई वस्तु या सेवा दी जाती है तो उस पर
अपना अधिकार समझना गलत नहीं है। अनेक लोग भूख लगने के बावजूद संकोच के
कारण किसी अन्य स्थान पर भोजन करने से कतराते हैं। ऐसा करना भी शरीर के
साथ खिलवाड़ करना है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अगर कोई काम सीखना हो तो
उसमें कभी संकोच नहीं करना चाहिये। सिखाने वाला व्यक्ति छोटा हो या बड़ा
उससे काम सीखना चाहिये। कहने का अभिप्राय है कि संकोच करना अपने आप को कष्ट
देना है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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