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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, January 22, 2013

विदुर नीति-अहंकारी के लिये मद विष समान (ahankari ke liye mad vish saman-vidur neeti)

          पंच तत्वों ने बनी मनुष्य की देह में मन और बुद्धि की तरह ही अहंकार की प्रकृति भी विराजती है।  विरले ही ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी ही होते हैं जो अपने अहंकार पर नियंत्रण रखते हैं-याद रहे देह का अभिन्न हिस्सा होने के इस प्रकृति को समूल नष्ट करना संभव नहीं है। ऐसे में जिन लोगों को अधिक विद्या, धन और पद मिलता है उनसे यह आशा करना ही व्यर्थ है कि वह अपने अहंकार में आकर अपने से कमतर आदमी को सम्मान दें।  इसके अलावा जिनको लगता है कि उनका कुल समाज में सबसे श्रेष्ठ है, उनसे अन्य समाज के लोगों को सम्मान देने की आशा करना भी व्यर्थ है।
          सच बात तो यह है कि हमारे देश में इस अहंकार से पैदा हुए सामाजिक वैमनस्य का यह  परिणाम है कि भौतिक रूप से संपन्न होते हुए भी विश्व में हमें आर्थिक रूप से पिछड़ा माना जाता है।  छोटी छोटी बातों पर समाज में सामूहिक संघर्ष होते हैं।  हम अपनी जिस आजादी पर इतराते हैं उसका यह भी एक पक्ष में है कि जिस मात्रा में इधर से उधर लोगों का उस दौरान पलायन हुआ उसकी मिसाल दुनियां  में किसी देश के इतिहास में नहीं मिलती।  भारत छोड़ रहे अंग्रेजों ने इस देश के भविष्य में अत्यंत शक्तिशाली होने की आशंका से इसके दो टुकड़े करने के लिये तत्कालीन शिखर पुरुषों को आपस में इस तरह उलझाया कि वह अपने अहंकार में लड़ते रहे और देश में इधर उसे उधर पलायन हुआ।
विदुर महाराज का कहना है कि
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विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिप्तनामेत एवं संतां दमः।।
           हिन्दी में भावार्थ-विद्या का मद, धन और ऊंचे कुल का यह तीन प्रकार का मद होता है। अहंकारी के लिये यह मद विष के समान होता है जो अंततः उसे पतन की तरफ ले जाता है, परंतु सहृदय व्यक्ति के लिये यह दम का साधन होता है।

अनर्थमर्थतः पश्यत्रर्थ चैवाप्यनर्थतः।
इन्द्रियैरजितैबॉलः सुदुःखं मन्यते सुखम्।।
            हिन्दी में भावार्थ-इंद्रियांवश में न होने के कारण अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ समझने वाला मनुष्य दुःख को भी सुख मान बैठता है।        जब हम देश की हालात पर नज़र डालते हैं तो लगता है कि चरित्र की दृष्टि से बौने लोग अपने से बड़े कद वाले पद पर पहुंच गये हैं।  जिन्होंने भूतकाल में कभी लोगों का भला नहीं किया समाज का भविष्य संवारने के लिये वही शिखर पर बैठ गये हैं।  समाज सेवा पेशा बन गयी तो धर्म बेचने की वस्तु की तरह बाज़ार में सजा हुआ दिखता है।  जिन लोगों ने भारत के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन कर ज्ञान का रट्टा लगाया है  वह महाज्ञानी बनकर समाज पर शासन करना चाहते हैं।  शिष्य और धन संग्रह कर ऐसे कथित महाज्ञानियों को स्वयं के बारे में ही यह भ्रम हो जाता है कि वह वाकई समाज के भगवान हैं।  इसके विपरीत जो ज्ञानी है वह शांति से समाज की सेवा करते हैं।  अपने प्रचार के लिये उनको किसी प्रचार की आवश्यकता नहीं होती।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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