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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, January 04, 2013

विदुर नीति-धनी से अधिक दरिद्र स्वाद चखता है (vidur neeti-dhani se adhik daridra swad chakhta hai)

            परमात्मा ने यह संसार अत्यंत विचित्र ढंग से रचा है।  उससे अधिक वह माया है जो सभी को नचाती है।  जिसके पास धन है उसके पास व्यय करने का समय नहीं है। व्यय करने का समय है तो सुख प्राप्त करने की कला वह भुला रहता है।  मनुष्य माया के चक्र में फंसने के बाद अपनी सारी दिनचर्या को अनियमित बना देता है।  ढेर सारी दौलत एकत्रित करने के बाद उसका शरीर इस कदर विकारग्रस्त हो जाता है कि न तो वह ढंग से सो पाता है न खा पाता है।  आजकल हमारे देश में राजरोगों का जाल फैल गया है। मधुमेह, हृदयघात, वायुविकार और घुटनों के दर्द की शिकायत ऐसे लोग करते हैं जो अत्यंत धनी है।  दरअसल धन के फेर में उनका शरीर जर्जर हो जाता है।  बाहर से भले ही रहन सहन से वह अत्यंत स्वस्थ दिखते हैं पर अंदर ही अंदर उनका शरीर खोखला हो जाता है।  इसके विपरीत दरिद्र की स्थिति भले ही धन की कमी की वजह से ठीक न हो पर दैहिक सुख की दृष्टि से वह धनी होता है।  आमतौर से श्रमकार्य करने वाले लोग कभी राजरोगों की शिकायत नहीं करते।  दैहिक विकार उनके पसीने के साथ बह जाते हैं।
विदुर नीति में कहा गया है कि
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सम्पन्नतरमेवान्न दरिद्र सदा।
क्षुत् स्वादुताँ जनपति सा चाड्येषु सुदुर्लभा।।
           हिन्दी से भावार्थ-निर्धन आदमी भोजन का जितना स्वाद लेता है उतना धनियों के लिये संभव नहीं है। धनियों के लिये यह स्वाद दुर्लभ है।
प्रावेण श्रीमतां लोक भोक्तुं शक्तिनं विद्यते।
जीर्वन्त्यपि हि काष्ठानि दरिद्राणं महपिते।।
           हिन्दी में भावार्थ- इस संसार में धनियों के भोग करने की शक्ति अत्यंत क्षीण होती है जबकि दरिद्र मनुष्य काष्ठ की लकड़ी को भी पचा जाता है।
       हमारे देश में जैसे जैसे कथित आर्थिक विकास में वृद्धि का आंकड़ा ऊंचाई की तरफ जाता दिखता है  वैसे ही स्वास्थ्य की तस्वीर अत्यंत विकृत होती जा रही है।  टीवी चैनलों पर राजरोगों के निवारण के लिये बनी दवाओं के ढेर सारे विज्ञापन आते हैं।  इन दवाई कंपनियों की आय इतनी है कि उनके कारण से फिल्म और धारावाहिकों का प्रायोजन तक होता है।  अनेक अध्यात्मिक चैनल इन राजरोगों के निवारण के लिये दवा बनाने वाली कपंनियों और इलाज करने वाले चिकित्सकों के सहारे चल रहे हैं।  राजरोगों की बढ़ोतरी ने अनेक शहरों में फाईव स्टार अस्पताल बनवा दिये हैं।  इससे सभी शहर चमकदार होते जा रहे हैं।  इन अस्पतालों मे केवल धनियों के आने की प्रतीक्षा होती है।  चिकित्सक अब इतने पेशेवर हो गये हैं कि वह अपने अस्पताल में ही किराने से लेकर दवा तक की व्यवस्था करते हैं।  धोखे से कभी कोई दरिद्र बीमार होकर वहां पहुंच जाये तब उसे पता लगता है कि ऐसे स्वर्ग में आ गया है जहां उसका प्रवेश वर्जित है।
            बहरहाल  दरिद्रता और  धन संपदा के बीच जो वैमनस्य है वह इस दुनिया में चलता रहेगा।  सच बात तो यह है कि इस तरह के विरोधाभास देखकर परमात्मा के लिये कहना पड़ता है कि ‘हे दुनिया बनाने वाले! तूने यह कैसी विचित्र रीतियां बनाई हैं।’’
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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