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Friday, August 12, 2011

कबीर दर्शन-शिष्य न समझे तो गुरु को दोष देना व्यर्थ (shisya n samajhe to guru ka dosh nahin)

                लोग एकदूसरे से पूछते हैं कि आज के गुरु भी भ्रष्ट और अज्ञानी हैं ऐसे में किससे ज्ञान प्राप्त किया जाये? देखा जाये तो ऐसे गुरुओं की उपस्थिति हर काल में रही है जो अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करते हैं। उनका लक्ष्य कोई धर्म का प्रचार करना नहीं होता बल्कि वह शिष्यों को ग्राहक बनाकर अपना रटा हुआ ज्ञान बेचते है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे देश में गुरु शिष्य की उच्च परंपरा रही है पर उसकी आड़ में ऐसे गुरुओं और शिष्यों की भरमार भी रही है जो पाखंड तथा ढोंग कर धर्म का दिखावा करते हैं। शिष्य जहां धर्म और अध्यात्म से इतर अपने अन्य लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये गुरु बनाते हैं तो गुरु भी अपने निकट ऐसे ही शिष्यों को आने देते हैं जो उनके धर्म के व्यापार में दलाल की भूमिका निभा सके हैं।
         संत कबीर कहते हैं कि
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        गुरवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास।
       राम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस।।
        ‘‘गुरु का पद तो सस्ता हो गया है। पैसा हो तो पचास गुरु बन जाते हैं। यह गुरु स्वयं राम नाम का धन बेचते हैं और शिष्य से अपनी उदरपूर्ति की आशा करते हैं।
       गुरु बिचारा क्या करे, शब्द न लागा अंग।
        कहें कबीर मैली गजी, केसे लागे रंग।।
      ‘‘कोई गुरु भी क्या करे कि उसके शब्दों का प्रभाव शिष्यों पर नहीं होता। उनके मन उसी तरह मैले हैं जिस तरह गंदा कपड़ा होता है जिस पर रंग चढ़ाना व्यर्थ हो जाता है।’’
              योग्य गुरु तथा शिष्य का संयोग बड़े भाग्य से बनता है। अगर कोई गुरु योग्य है तो उसके शिष्यों में मन में ज्ञान प्राप्त करने की बजाय दिखावे की प्रवृत्ति अधिक है। वह उसके ज्ञान को केवल मनोरंजन का विषय मानकर सुनते है। प्रवचन और सत्संग के बाद उनका घर जाकर जस की तरह आचरण हो जाता है। उसी तरह अगर कोई गुरु ज्ञानी है पर उसके पास अच्छे प्रबंधक और प्रचारक शिष्य नहीं है तो उसे कोई नहीं पूछता। यही स्थिति उन जिज्ञासु लोगों की भी है जो अपने लिये आध्यात्मिक गुरु ढूंढते हैं पर व्यवसायिक गुरुओं की बहुतायत होने के कारण वह निराश हो जाते हैं। हालांकि ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता तथा अन्य धर्मग्रंथों का नियमित अध्ययन किया जाये तो ऐसे पावन ग्रंथ स्वतः गुरु बन जाते हैं। महर्षि चाणक्य कहते हैं कि प्रतिदिन एक पाठ और वह भी नहीं तो एक दोहे या श्लोक का अध्ययन कर भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। वह भी नहीं तो आधे श्लोक या दोहे का अध्ययन करें। गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह सदेह हा सामने हो एकलव्य का अभ्यास इस बात की पुष्टि भी करता है। मूल बात संकल्प की है और वह धारण कर लिया तो फिर ज्ञानमार्ग का द्वार स्वतः खुल जाता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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