मूलतः भारतीय समाज प्रगतिवादी माना जाता है। हालांकि कुछ विदेशी भारतवासियों की धर्मभीरुता का मजाक उड़ाते हैं पर जिस तरह हमारा समाज समय के अनुसार नई शिक्षा, विज्ञान तथा साधनों के उपयोग की तरफ प्रवृत्त होता है उससे यह प्रमाणित होता है कि रूढ़ता का भाव उसमें नहीं है पर इसके बावजूद फिर भी धर्म के नाम पर अनेक कर्मकांड हैं जिसे लोग केवल सामाजिक दबाव में इसलिये अपनाते हैं कि लोग क्या कहेंगे। आधुनिक शिक्षा से जीवन में आगे बढ़े लोग भी अंधविश्वास और कर्मकांडों पर इसलिये विश्वास करते दिखते हैं क्योंकि उन पर कहीं न कहीं से दूसरे लोगो का दबाव होता है। स्थिति यह है कि अनेक धार्मिक ठेकेदार तो इन्हीं कर्मकांडों को ही धर्म का आधार कहकर प्रचारित करते हैं।
इस विषय पर संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि
‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम।।
"आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।"
संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नरक का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढ़ियों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए। कर्मकांडों को निभाना धर्म नहीं होता बल्कि इंसान के व्यवहार से दूसरे को लाभ तथा प्रसन्नता मिले वही सच्चा धर्म है, यह बात समझ लेना चाहिए।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लागhttp://deepkraj.blogspot.com
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतनहिन्दी साहित्य,अध्यात्म,समाज,हिन्दू धर्म,hindi sahitya,adhyatma,samaj,society,hindi religion
No comments:
Post a Comment