मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति और कमजोरी
उसकी देह में स्थित मन है। कहना तो यह चाहिये कि मन की इच्छा से चलने वाला
ही जीव मनुष्य कहलाता है। यह मन बहुत विचित्र है। पहले एक चीज को पाने का
मोह करता है तो उसके आते ही उससे विरक्त होकर दूसरी का मुख देखने लगता है।
जो तत्व ज्ञानी नहीं होते वह अनाड़ी घुड़सवार की तरह इस बेेलगाम घोड़े की
सवारी करते हैं जो द्रुत गति से चलता जाता है और फिर अपने स्वामी को नीचे
पटक देता है। रुकता फिर भी नहीं बल्कि और तेज दौड़ता है। जमीन पर गिरा
मनुष्य घायलावस्था में पड़ा है और सोचता है कि अब क्या करूं?
आज
के वैश्विक समाज में जीवन के विकास का मतलब केवल भौतिक उपलब्धियों की
वृद्धि से ही माना जाता है। अध्यात्मिक विकास तो बुढ़ापे में ही आवश्यक
है-यह सिद्धांत बताया जाता है। अध्यात्मिक विकास से मतलब सन्यास माना गया
है। इस कारण हर मनुष्य जीवन में माया के पीछे भागे चला जा रहा है। एक लाख
हैं तो दस लाख चाहिए और दस लाख हैं तो करोड़, करोड़ हैं तो दस करोड़, दस करोड़
हैं तो एक अरब-इस तरह उसके भौतिक विकास का अंतहीन लक्ष्य कभी पूरा नहीं
होता और इधर देह वृद्धावस्था में पहुंच जाती है जहां शरीर की लाचारी मन को
भी लाचार बना देती है। मन बीमार तो मनुष्य भी बीमार हो जाता है।
अध्यात्मिक अभ्यास न होने की वजह से भक्ति होती नहीं तो जिंदगी से थके पांव
सत्संग में जाने नहीं देते।
इस विषय में भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
"राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।"
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दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
"राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।"
अगर
हम थोड़ा चिंत्तन करें तो इस बात का आभास स्वतः होगा कि संसार का भौतिक
चक्र तो त्रिगुणमयी माया के बंधने में होने के कारण स्वतः संचालित है।
हमारी देह स्वाभाविक रूप से अपनी आवश्यकताओं के लिये सक्रिय रहनी ही है
चाहे हम प्रयास करें या नहीं। इस देह में विद्यमान मन, बुद्धि तथा अहंकार
ऐसी प्रकृतियां हैं जो अपनी सक्रियता का अहसास मनुष्य को कर्ता के रूप में
कराती हैं जबकि यह सच नहीं है। ज्ञानी लोग इस बात को जानते हैं इसलिये
सांसरिक कर्म में सक्रिय रहते हुए भी उसके फल में विरक्त भाव रखते हैं। ऐसी
मानसिक नियंत्रण तप, स्वाध्याय, सत्संग, त्याग तथा भक्ति के अभ्यास से ही
प्राप्त होता है। अत जहां तक हो सके समय मिलने पर योगसाधना तथा भक्ति करना
चाहिए।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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