समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, May 20, 2010

चाणक्य नीति दर्शन-अपने गुणों की स्वयं प्रशंसा करना अज्ञान का प्रमाण (khud ki taarif agyan ka praman-chankya neeti)

पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा अन्य लोग  करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।
अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचाने या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह  सम्मान कहां रह जायेगा।
मनुष्य को कभी अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करना चाहिये।  दरअसल आज यह स्थिति यह है कि हर आदमी अपने मुख से अपनी प्रशंसा स्वयं करता है। इसका कारण यह है कि लोगों ने परोपकार तथा परमार्थ का काम करना छोड़ दिया है और उनके बिना सम्मान मिल नहीं सकता। इसलिये ही जिसे देखो आत्मप्रवंचना करने लगे में लगा है। ‘मैंने यह किया’ और ‘मैंने वह किया’ जैसी बातें कर लोग दूसरों से प्रशंसा पाना चाहते हैं। कई तो ऐसे हैं जिन्होंने कभी किसी का भला नहीं किया पर दावे बहुत करते हैं।  यह सब अज्ञानी लोगों का काम है। ज्ञानी लोग भला काम करते है पर आत्मप्रवंचना से दूर रहते हैं क्योंकि उनके काम की प्रशंसा स्वयं ही होती है। 
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें