ऊंच नीच घर अवतरै, हो संत का अन्त
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य द्वारा की गयी निष्काम भक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती। भक्त चाहे जिस जाति या वर्ण को हो और लोग उनमें भी ऊंच नीच का भेद भले ही करें पर परमात्मा का हर सच्चा भक्त तो संत ही होता है।
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग भादों में बहने वाली नदी की तरह केवल विशेष समय पर ही भक्ति करते हैं उनको भक्त नहीं माना जा सकता। जो लोग हर समय भक्ति में लीन रहते हैं वही सच्चे भक्त है क्योंकि वह उसी नदी की तरह पूज्यनीय हैं जो जेठ माह में भी जल प्रदान करती है जब प्रथ्वी पर जल की कमी हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कई लोग ऐसे हैं जो अपनी मनोकामनायें लेकर धार्मिक स्थलों पर जाते हैं। वह यह प्रण करते हैं कि अमुक काम होने पर वह फिर आयेंगे। या फिर घर बैठे ही तय करते हैं कि यह इच्छा पूरी हो जाये तो अमुक धार्मिक स्थान पर जाकर दर्शन करेंगे। यह भक्ति नहीं बल्कि अपने आपको ही धोखा देना है। इस मायावी संसार में अगर मनुष्य ने जन्म लिया है तो उसे अनेक काम तो स्वतः ही पूरे हो जाते हैं क्योंकि करतार तो कोई और है पर मनुष्य अपने होने का भ्रम पाल लेता है। ऐसी कामनायें और इच्छा पूरी होने पर वह दर्शन करने ऐसे जाता है जैसे कि वह परमात्मा को फल दे रहा हो। ऐसी भक्ति केवल नाटक बाजी तो आजकल अधिक देखने को मिलती है। यह भक्ति नहीं है क्योंकि कामनाओं का क्या? एक पूरी होती है तो दूसरे जन्म लेती है। भक्ति तो निष्काम होती है और आदमी का समय अच्छा या बुरा हो वह उसे नहीं छोड़ता।
उसी तरह मनुष्य भले ही जात पांत या धर्म का भेद करता है पर जो भी परमात्मा की निष्काम भक्ति करता है वह संत है।
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