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Friday, February 27, 2009

भर्तृहरि संदेश: वस्त्र कैसे भी हों, क्या फर्क पड़ता है

जीर्णाः कन्था ततः किं सितमलपटं पट्टसूत्रं ततः किं
एका भार्या ततः किं हयकरिसुगणैरावृतो वा ततः किं
भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथवा वासरान्ते ततः किं
व्यक्तज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्

हिंदी में भावार्थ-तन पर फटा कपड़ा पहना या चमकदार इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। घर में एक पत्नी हो या अनेक, हाथी घोड़े हों या न हों, भोजन रूखा-सूखा मिले या पकवान खायें-इन बातोंं से कोई अंतर नहीं पड़ता। सबसे बड़ा है ब्रह्मज्ञान जो मोक्ष दिलाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने हमारे देश में भौतिकवाद को प्रोत्साहन दिया है और अब तो पढ़े लिखे हों या नहीं सभी सुख सुविधाओं को जाल में फंसते जा रहे हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान के बारे में जानते सभी हैं पर उसे धारण करना लोगों को अब पिछड़ापन दिखाई देता है। नतीजा यह है कि समाज में आपसी रिश्ते एक औपचारिकता बनकर रहे गये हैं। अमीर गरीब की के बीच में अगर भौतिक रूप से दूरी होती तो कोई बात नहीं पर यहां तो मानसिक रूप से सभी एक दूसरे से परे हो जा रहे हैं। जिसके पास सुख साधन हैं वह अहंकार में झूलकर गरीब रिश्तेदार को हेय दृष्टि से देखता है तो फिर गरीब भी अब किसी अमीर पर संकट देखकर उसके प्रति सहानुभूति नहीं दिखाता। हम जिस कथित संस्कृति और संस्कार की दुहाई देते नहीं अघाते वह केवल नारे बनकर रहे गये हैं और धरातल पर उनका अस्तित्व नहीं रह गया है।

जिसके पास धन है वह इस बात से संतुष्ट नहीं होता कि लोग उसका सम्मान इसकी वजह से करते हैं बल्कि वह उसका समाज में प्रदर्शन करता है। धनी लोग अपने इसी प्रदर्शन से समाज में जिस वैमनस्य की धारा प्रवाहित करते हैं उसके परिणाम स्वरूप सभी समाज और समूह नाम भर के रहे गये हैं और उसके सदस्यों की एकता केवल दिखावा बनकर रह गयी है।

जिस तत्वज्ञान की वजह से हमें विश्व में अध्यात्म गुरु माना जाता है उसे स्वयं ही विस्मृत कर हम भारी भूल कर रहे हैं। शरीर पर कपड़े कितने चमकदार हों पर अगर हमारी वाणी में ओज और चेहरे पर तेज नहीं हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होता। काम चलने को तो दो रोटी से भी चल जाये पर जीभ का स्वाद ऐसा है कि अभक्ष्य और अपच भोजन को ग्रहण कर अपने शरीर में बीमारियों को आमंत्रित करना होता है। सोचने वाली बात यह है कि अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं फिर अगर हम ऐसा करते हैं तो कौनासा तीर मार लेते हैंं। मनुष्य जीवन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा मिलती है पर उसका उपयोग नहीं कर हम उसे ऐसे ही नष्ट कर डालते हैं। ऐसे में वह ज्ञानी धन्य है जो दाल रोटी खाकर पेट भरते हुए भगवान भजन और ज्ञान प्राप्त करने के लिये समय निकालते हैं।
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2 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छी बातें कही हैं ...

seema gupta said...

मनुष्य जीवन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा मिलती है पर उसका उपयोग नहीं कर हम उसे ऐसे ही नष्ट कर डालते हैं। ऐसे में वह ज्ञानी धन्य है जो दाल रोटी खाकर पेट भरते हुए भगवान भजन और ज्ञान प्राप्त करने के लिये समय निकालते हैं।

Regards

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