आन उपासी कृतधनी, तरै न गुरु कहन्त
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कामी और क्रोधी तर सकते हैं और लोभी भी इस भव सागर से तरकर परमात्मा को पा सकते हैं पर जो अपने इष्ट देव की उपासना त्यागता है और गुरु का संदेश नहीं मानता वह कभी तर नहीं सकता।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर कबीरदास जी के इस दोहे का आशय समझें तो उनके अनुसार वह उस हर व्यक्ति को अपने इष्ट देव की उपासना न छोड़ने का संदेश दे रहे हैं। एक तरह से धर्म परिवर्तन को एक भ्रम बता रहे हैं। उस समय धर्म शब्द उस रूप में प्रचलित नहीं था जिस तरह आज है बल्कि लोगों को अपने अपने इष्ट देवों को उपासक के रूप में पहचान थी यही कारण है कि कबीरदास जी के साहित्य में धर्मों के नाम नहीं मिलते बल्कि सभी लोगों को एक समाज मानकर उन्होंने अपनी बात कही है।
दरअसल धर्म का आशय यह है कि निंरकार परमात्मा की उपासना, परोपकार, दान और सभी के साथ सद्व्यवहार करना। वर्तमान समय में इष्ट देवों की उपासना के नाम पर धर्म बनाकर भ्रम फैला दिया गया है और विश्व के अनेक भागों में कई लोगों को धन तथा रोजगार का लालच या जीवन का भय दिखाकर धर्म परिवर्तन करवाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ऐसे कई समाचार आते हैं कि अमुक जगह धर्म अमुक ने धर्म परिवर्तन कर लिया। ऐसा समाचार केवल भारत में नहीं अन्य देशों से भी आते है। यह केवल कुछ लोगों का भ्रम है या वह भ्रम फैलाने और प्रचार पाने के लिये ऐसा करते हैं।
देख जाये तो परमात्मा एक ही है सब मानते हैं। लोग उसे विभिन्न रूपों और नामों से जानते हैं। ऐसे में उसके किसी स्वरूप का बदलकर दूसरे स्वरूप में पूजने का आशय यही है कि आदमी भ्रमित हैं। हमारे देश में तो चाहे आदमी कैसा भी हो किसी न किसी रूप में उसकी उपासना करता है। कोई न कोई पवित्र ग्रंथ ऐसा है जिसे पढ़ता न हो पर मानता है। ऐसे में वह एक स्वरूप को छोड़कर दूसरे की उपासना और एक पवित्र ग्रंथ को छोड़कर दूसरा पढ़ने लगता है तो इसका आशय यह है कि उसकी नीयत ठीक नहीं और जो इसके लिये प्रेरित कर रहे हैं उन पर भी संदेह होता है। संत कबीरदास जी के कथानुसार ऐसे लोग कभी जीवन में तर नहीं सकते भले ही दुष्ट और कामी लोग तर जायें। संत कबीरदास जी तो निरंकार के उपासक थे और वर्तमान में तो पूरा विश्व एक ही परमात्मा को मानता है और ऐसे में उसके स्वरूप को बदलकर दूसरे के रूप में पूजना वह स्वार्थ और लोभ का परिणाम मानकर सभी को उसके लिये रोकने का संदेश कबीरदास जी देते थे।
आशय यह यही है कि बचपन से जिस इष्ट का माना उसे छोड़कर दूसरे की उपासना नहीं करना चाहिए। न ही अपने गुरु, माता पिता और बंधुओं द्वारा सुझाये गये इष्ट के अलावा किसी और का विचार नहीं करना चाहिए। अगर कोई ऐसा करता है तो वह स्वार्थ से प्रेरित है और स्वार्थ से की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की चाहे जो भी इष्ट हो उसकी निष्काम भक्ति करना चाहिए।
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