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Sunday, February 22, 2009

भर्तृहरि नीति शतक: अपनी इच्छाएँ मनुष्य को नृत्य करने को बाध्य करती हैं

खलालापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरैर्निगृह्यह्यान्तर्वाष्पं हसितमपि शून्येन मनसा।
कृतश्चित्तस्तम्भः प्रहसितधियाम´्जलिरपित्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्तयसि माम्

हिंदी में भावार्थ-भर्तृहरि जी कहते हैं कि दुष्ट लोगों की सेवा करते हुए उनके अनेक व्यंग्यात्मक कथन सुनने पड़े। दुःख के कारण अंदर के आंसुओं को किसी तरह बाहर आने से रोका और उनको प्रसन्न करने के लिये जबरन चेहरे पर हंसी लाने का प्रयास किया। अपने मन को समझाकर उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनके सामने अनेक बार हाथ जोड़े। अपने अंदर जो आशायें और आकांक्षायें हैं वह पता नहीं कितना नचायेंगी

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आदमी के मन में अनेक प्रकार की आशायें, आकांक्षायें और इच्छायें होती हैं जो उनको उनको अपने स्वामी या उच्च पदस्थ व्यक्ति की जीहुजूरी के लिये बाध्य करती हैं। जो सोने का चम्मच मूंह में लेकर पैदा हुए हैं वह निरीह लोगों के मन की बात को नहीं समझ सकते। धन, पद और बाहूबल से संपन्न लोगों के सामने अनेक प्रकार के लोग हाथ जोड़े खड़े रहते हैं पर वह मन से कभी उनके नहीं होते। अपनी आशाओं और आशाओं की पूर्ति के लिये उनके सामने उनकी प्रशंसा और पीठ पीछे निंदा कर अपने मन हल्का करते हैं। संसार में माया का प्रभाव है और वह अनेक प्रकार से मनुष्य को उलझाये रहती हैं। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये एक मनुष्य को माया दूसरे का गुलाम बना देती हैं।
कई बार गुलामी और नौकरी से ऊबा आदमी व्यथित हो जाता है पर वह अपनी जगह से हट नहीं सकता क्योंकि उसे अपनी आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये माया की जरूरत होती है और वह इसलिये नाचता रहता है और सोचता भी है कि कब वह इससे मुक्ति पाये पर वह कभी आजाद नहीं हो पाता। उसका मन ही उसको उकसाता है और वही उसको पिंजरे में रहने को भी बाध्य करता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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