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Wednesday, February 25, 2009

भर्तृहरि संदेश: भगवान् की भक्ति के अलावा सब व्यापार है

किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तरैः
स्वर्गग्रामकुटीनिवाफलदैः कर्मक्रियाविर्भमैः।
मुक्तवैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानल्र
स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणगव्त्तयः


हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मृतियों और पुराणों को पढ़ने, बृहद शस्त्रों के श्लोक रटने, किसी स्वर्ग जैसे ग्राम में फल देने वाले कर्मकांड एक तरह से पाखंड हैं उनके निर्वहन से क्या लाभ? संसार में दुःखों का भार हटाने और परमात्मा का दिव्य पद पाने के लिये केवल उसका स्मरण करना ही पर्याप्त है। उसके अलावा सभी कुछ व्यापार है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने मन को शांति देन का इकलौता मार्ग एकांत में परमात्मा की हृदय से भक्ति करना ही है। चाहे कितने भी द्रव्य से संपन्न होने वाले यज्ञ कर लें और अनेक ग्रंथ पढ़कर उसकी सामग्री पढ़कर दूसरों का सुनाने से कोई लाभ नहीं हैं। हम अपनी शांति प्राप्त करने के लिये सत्संगों और आश्रमों में पाखंडी गुरूओं के पास जाते हैं। इनमें कई कथित साधुओं और संतों ने पंच सितारे होटलों की सुविधाओं वाले आश्रम बना लिये हैं जहां रहने का दाम तो दान के नाम वसूल किया जाता है। ऐसे संत और साधु कर्मकांडों में लिप्त होने का ही संदेश देते हैं। अधिकतर साधु संत सकाम भक्ति के उपासक हैं। वह अपने पैर पुजवाते हैं। कहते तो वह भी भगवान का स्मरण करने को हैं पर साथ में अपनी किताबें और मंत्र पकड़ाते हैं। उनके बताये रास्ते से सच्चे मन से भक्ति नहीं होती बल्कि शांति खरीदने के लिये हम उनको पैसे देकर अपने घर आते हैं। परंतु मन की शांति कहीं बाजार में मिलने वाली वस्तु तो है नहीं और फिर हमारा मन अशांत होकर भटकने लगता है।

ईश्वर की भक्ति से ही मन को शांति मिलती है और उसके लिये यह आवश्यक है कि मन को कुछ पल सांसरिक मार्ग से हटाया जाये और उसका एक ही उपाय है कि एकांत में बैठकर उसका ध्यान करें। बाकी तो अपने देश में धर्म के नाम पर व्यापार है और जितने भी कर्मकांड हैं वह तो केवल व्यापार के लिये हैं और उनसे काल्पनिक स्वर्ग पाने का विचार ही बेकार है।
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2 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

लगता है भर्तृहरि महराज पूरा देख नहीं पाए. आजकल तो भक्ति भी चौचक व्यापार में बदल गया है.

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

aajkal to bhagti ke bhee udyog ho gaye, narayan narayan

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