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Saturday, October 04, 2008

कबीर के दोहे: आशा और तृष्णा हैं समुद्र की लहरों के सामान

आस आस घर घर फिरै, सहै दुखारी चोट
कहैं कबीर भरमत फिरै,ज्यों चैसर की गोट

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि अपने हृदय मं आशा कर मनुष्य घर घर भटकता है पर पर उसे दूसरे के मुख से अपने लिये अपमान के वचन सुनने पड़ते हैं। केवल आशा पूरी होने के लिये अपनी अज्ञानता के कारण मनुष्य चैसर के गोट की तरह कष्ट उठाता है।
आशा तृस्ना सिंधु गति, तहां न मन ठहराय
जो कोइ आसा में फंसा, लहर तमाचा खाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आशा और तृष्णा और समुद्र की लहरों के समान है हो उठती और गिरती हैं जो मनुष्य इसके चक्कर में फंसता है वह इसके तमाचा खाता रहता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अपना हर कार्य अपने ऊपर ही रखना चाहिए। इस सांसरिक जीवन में सारे कार्य अपने नियत समय पर होते हैं और मनुष्य को केवल निष्काम भाव से कार्य करते हुए ही सुख की प्राप्त हो सकती हैं। श्रीगीता में निष्काम भाव से कार्य करने का उपदेश इसलिये दिया गया है। यह संसार अपनी गति से चल रहा है और उसमें सब कर्मों का फल समय पर प्रकट होता। मनुष्य सोचता है कि मैं इसे चला रहा हूं इसलिये वह अपने ऐसे कार्यों के लिये दूसरों से आशा करता है जो स्वतः होने हैं और अगर मनुष्य उसके लिये अपने कर्म करते हुए परिणाम की परवाह न करे तो भी फलीभूत होंगे। जब अपने आशा पूर्ति के लिये आदमी किसी दूसरे घर की तरफ ताकता है तो उसे उसे अपना आत्मसम्मान भी गिरवी रखना पड़ता है। वैसे अपना कर्म करते जाना चाहिये क्योंकि फल तो प्रकट होगा ही आखिर वह भी इस संसार का एक ही भाग है। आशा और कामना का त्याग कर इसलिये ही निष्काम भाव से कार्य करने का संदेश दिया गया है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

1 comment:

Udan Tashtari said...

बहुत आभार इस व्याख्या के लिए.

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