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Friday, March 28, 2014

दंड प्रणाली के नरम होने पर समाज अधम हो जाता है-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन संदेश(dand pranali ke naram hone par samaj adham ho jaata hai-manu smriti ka aadhar par chinttan lekh)



      हमारे यहां लोकसभा चुनाव 2014  की चुनाव प्रक्रिया चल रही है। मनुष्य समाज के लिये एक राज्य व्यवस्था का होना आवश्यक है और इस समय पूरे विश्व में राजतंत्र की जगह लोकतांित्रक प्रणाली अपनायी गयी जिसमेें राज्य व्यवस्था जनता से निर्वाचित प्रतिनिधि देखते हैं।  यह राज्य व्यवस्था उन अधिकारियों के हाथ में होती है जो जनता से सीधी जुड़े नहीं होते पर जनप्रतिनिधियों मेें राज्य प्रबंधन के ज्ञान के अभाव उन्हें अपना मुख बना लेते हैं। सारे काम अधिकारी करते हैं और उनके लिखे शब्दों को जनप्रतिनिधि अपना स्वर देते हैं। जनप्रतिनिधियों के पास प्रत्यक्ष अधिकार न होने से राज्य व्यवस्थाओं में अनेक प्रकार के विरोधाभास उत्पन्न होते देखे गये हैं।  जनप्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह हैं पर उनके पास कार्यप्रबंध का कोई प्रत्यक्ष अधिकार नहीं होता जिसे उन्हें अपने मातहत अधिकारियों पर निर्भर होना पड़ता है जो उन्हें चाहे जैसा समझाते हैं उनको मानना पड़ता है। फिर हमारे देश में अंग्रेजी राज्य व्यवस्था का ही अनुकरण हो रहा है जिसमें कागजी कार्यवाही जरूरत से अधिक होती है। यह प्रणाली लंबी तथा उबाऊ होती है।

मनुस्मृति में कहा गया है कि
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अद्यात्काककः पुरीडार्श श्वा च लिह्याद्धविस्तथाः।
स्वाम्यं च न स्वात्कस्मिश्चित्प्रवर्तेतधरोत्तरम्।।
     हिन्दी में भावार्थ-यदि राजा अपराधियों को दंड नहींदेगा तो  कौआ पुरोडाश और श्वान हवि खायेगा। कोई किसी को स्वामी नहीं मानेगा तथा समाज उत्तम से मध्यम और उसके बाद अधम बन जायेगा।
यदि न प्रणवेद्राजा दण्डं दण्ड्येष्श्वतन्द्रितः।
शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः।।
     हिन्दी में भावार्थ-यदि अपराधियों को सजा देने में राजा सदैव सावधानी से काम नहीं लेता तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं जैसे बड़ी मछली छोटी को खा जाती है।

      सबसे बड़ी समस्या अपराधियों को दंड देने को लेकर खड़ी होती है।  आधुनिक सभ्यता के  नाम पर अपराधियों को सरल दंड दिये जाने लगे हैं तो न्यायिक प्रक्रिया को लेकर मानवाधिकार संगठन भी कम मखौलबाजी नहीं करते। यह मानवाधिकार संगठन आमतौर से ऐसे अपराधियों का प्रचार करते दिखते हैं जिन्होंने समाज के प्रति जघन्य अपराध कर अधिक बदनामी पायी होती है।  कभी अप्रचारित अपराधी का पक्ष यह मानवाधिकार संगठन कभी करते दिखते नहीं है। इतना ही नहीं भारत में तो सीमावर्ती प्रदेशों में जो आतंकवादी संगठन कार्यरत हैं उनके लिये इन मानवाधिकार संगठनों में अत्यंत सहानुभूति पाई जाती है पर देश के  बिल्कुल मध्य भाग में जो निर्दोष लोग परेशान हैं उनके लिये कभी इन लोगों ने आंदोलन नहीं किया।
      इधर यह भी देखा जा रहा है कि अपराधियों में दंड की बात तो दूर प्रतिकूल कार्यवाही तक का भय नहीं रहा जिस कारण देश में अपराध बढ़ते जा रहे हैं। हमारे देश में जब कोई अपराध बृहद रूप में प्रकट होता है तो उसके लिये अलग से कानून बनाने की मांग होती है जबकि समस्या देश में उचित ढंग से मौजूदा कानून लागू करने की है। जब देश में दंड व्यवस्था शक्तिशाली नहीं होगी तब तक कोई सुखद कल्पना करना ही व्यर्थ है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Monday, March 24, 2014

बड़े लोगों को छोटों की प्रीति रास नही आती-रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(bade logon ko chhoton ki preeti ras nahin aatee-rahim darshan par aadharit chinttan lekh)



      विश्व में राज्य से मुक्त अर्थव्यवस्था ने समाज में अनेक प्रकार के विरोधाभास पैदा किये हैं। कृषि, लघु उद्योग तथा व्यापार में लगे लोगों की संख्या कम होती जा रही है। अधिकतर लोग नौकरियों के लिये कंपनियों की तरफ दौड़े जा रहे हैं। एक तरह से मध्यम वर्ग का दायरा सिमट रहा है। समाज में अधिक अमीरों की संख्या नगण्य मात्रा  जबकि गरीबों की संख्या गुणात्मक रूप से बढ़ रही है।  इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने वाला मध्यम वर्ग जहां संख्यात्मक दृष्टि से सिमटा है वहीं उसका आत्मविश्वास भी कम हुआ है।  वह गरीब कहलाना नहीं चाहता और अमीर बन नहीं पाता।  इतना ही नहीं अपने अस्तित्व के लिय संघर्ष कर रहे लोगों से यह अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वह समाज में सामंजस्य का वातावरण बनाये।
      भौतिकवाद के चक्कर मे फंसा समाज हार्दिक प्रेम, निष्प्रयोजन मित्रता तथा आदर्श व्यवहार के भाव से परे होता जा रहा है।  देखा जाये तो हमारे देश में जिस तरह धनिकों का भंडार बढ़ने के साथ ही  ही समाज में व्यसन, अपराध तथा शोषण की प्रवृत्ति भी तेजी बढ़ती  जा रही है।  कथित आर्थिक विकास ने नैतिकता का जहां विध्वंस करने के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान की धारा को अवरुद्ध कर दिया है। सबसे बड़ी बात तो यह कि विभिन्न समाजों के बीच ही नहीं बल्कि उनक अंदर ही सद्भाव काम कर दिया है। लोग औपचारिक रूप से आपसी संपर्क तो रखते हैं पर हार्दिक प्रेम का नितांत अभाव है।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन कीन्ही प्रीति, साहब को भावै नहीं,
जिनके अनगिनत भीत, हमैं, गरीबन को गनै।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-धनियों के अनेक मित्र बन जाते हैं। उनको गरीब लोगों से मित्रता करना अच्छा नहीं लगता। बड़े लोगों को छोटे लोगों की प्रीति अच्छी नहीं लगती।
      कंपनी नाम की व्यवस्था ने साहब, सचिव और सहायक का अंतर इस तरह स्थापित किया है कि लगता है कि यह कोई आधुनिक विभाजन है। विभिन्न पदों के लिये होने वाले प्रशिक्षण में यह बता दिया जाता है कि अपने से निचले स्तर के व्यक्ति के साथ समान सबंध स्थापित न करें वरना आपको अपने काम में ही परेशानी उठानी पड़ेगी।  धनिका परिवारों में भी निम्न वर्ग के लोगों को अपना अनुचर मानकर व्यवहार करने के संस्कार स्वाभाविक रूप से ही मिलते हैं।  अमीरों के अनुचर बनने वाले मध्यम और निम्न वर्ग के युवक युवतियों को यह आभास नहीं होता कि उन्हें उच्च वर्ग से हार्दिक प्रेम की आशा नहंी करनी चाहिये।  जीवन का यथार्थ यही है कि हर बड़ी मछली छोटी को ही खा जाती है।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, March 22, 2014

ज्ञानी कभी राजसुख पाने का प्रयास नहीं करते-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(gyani kabhi rajsukh pane ka prayas nahin karte-bharitihari neeti shatak ke aadhar par chinntan lekh)



      जैसे जैसे 2014 के लोकसभा  चुनाव का समय पास आता जा रहा है वैसे टीवी चैनलों तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं की खबरों में इससे संबंधित जानकारी दिलचस्प होती जा रही है।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनुष्य समाज में राजपद की स्थापना की अनिवार्यता की शर्त पूरी करने के लिये सभी नागरिकों को अपनी भागीदारी निभानी ही होगी। कोई जनप्रतिनिधि पद का प्रत्याशी तो  कोई मतदाता के रूप में अपनी भागीदारी निभायेगा।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि मतदाताओं को प्रभावित करने के लिये सभी प्रत्याशी अपनी तरह से कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।  सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि इन चुनावों में धर्म के नाम पर कार्यरत कुछ विद्वान इस चुनावी राजनीति में अपने व्यक्तिगत प्रभाव के लिये सक्रिय होना चाहते हैं। पहली बात तो हम यहां यह बता दें कि धर्म से हमारा आशय उच्च आचरण से होता है।  इस आचरण के भी तीन रूप हैं-सात्विक, राजस और तामस।  एक चौथा रूप भी होता है- वह है योगी या सन्यासी- जिसकी चर्चा बहुत कम होती है यह अलग बात है कि धर्म के नाम पर सक्रिय कुछ पेशेवर लोग यही रूप धारण कर समाज में विशेष रंग के कपड़े पहनकर विचरते हैं।
      चुनावी राजनीति में सामान्य लोग भी सक्रिय होते हैं और कहीं न कहीं उन पर भी अन्य की तरह इन विशेष वस्त्रधारी कथित धर्म विशेषज्ञों के प्रति रुझान रहता हैं। चुनावी राजनीति में सक्रिय शिखर पुरुष भी  यह मानकर चलते हैं कि इन कथित धर्म रक्षकों के पास शिष्यों का  एक ऐसा समुदाय रहता है जो चुनाव को प्रभावित कर सकता हैं।  इसलिये अभी तक वह इनके इर्दगिर्द मंडराते थे पर अब तो यह हालत हो गयी है कि अनेक धर्मों के कथित विशेषज्ञ बाकायदा चुनाव मैदान में उतरने के लिये इन शीर्ष पुरुषों से संपर्क रखने लगे हैं। टिकट मिलने पर अपने धर्म की जीत और न मिलने पर संकट बताकर अपने समुदाय को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि वह उनके बताये अनुसार मतदान करे।  हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह राजसी आचरण है।  इसे सत्वगुण या योग से तो कतई नहीं जोड़ा जा सकता है।  जब यह कथित पेशेवर धार्मिक विद्वान यह दावा करते हैं कि उनका आचरण सात्विक है या वह स्वयं सन्यासी हैं तब उनका इस तरह का व्यवहार उनकी निष्ठा पर ही संदेह पैदा करता है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्रव्यं न गवादिकं किंवा प्राणसमासमगमसुखं नवाधिकप्रीतये।
किं तद्भ्रान्तपत्पतङ्गपवनव्यालोलदीपाङ्करच्छायचञ्वलामाकरूय सकलं सन्तो वनान्तं गताः।।
     हिन्दी में भावार्थ-क्या प्राचीन समय में संतों को रहने के लिये सुंदर महल नहीं थे? क्या उनके सुनने के लिये संगीत नहीं था। क्या उन्हें प्राण प्रिय सुंदर स्त्रियों से समागम हृदय को प्रिय नहीं लगता था? जो उन्होंने संसार को गिरते पतंगे के पंखों की हवा से विचलित हुई दीपक का लौ की छाया के समान विचलित मानकर त्याग दिया।

      हमारा मानना है कि आम आदमी की चिंतायें उसके परिवार के इर्दगिर्द ही रहती हैं।  धर्म के नाम पर वह अपने इष्ट की आराधना से अधिक कुछ नहीं करता। अधिक से अधिक अपने आसपास किसी पर विपत्ति होने पर आदमी उसकी सहायता कर अपने सात्विक होने का बोध अवश्य कराता है पर उसमें  हमेशा ही राजसी वृत्तियां ही उपस्थित रहती हैं।  वह इन कथित पेशेवर धार्मिक लोगों को इस डर से सम्मान देता है कि वह कहीं उसे धर्मद्रोही घोषित कर समाज में बदनाम न कर दें। वह इन मध्यस्थों को सर्वशक्तिमान का रूप माने यह सोचना ही भ्रम है। अनेक धर्म के ऐसे व्यवसायी यह जानते हैं इसलिये अपने साथ समाज पर नियंत्रण रखने के लिये दबंग तथा प्रभावशाली लोग साथ लेकर चलते हैं। वह सद्भाव से प्रीति की बजाय भय बिन भये न प्रीति का सिद्धांत मानते हैं।
      समस्या यह है कि श्रीमद्भागवत गीता का कर्म तथा गुण विभाग का ज्ञान आम लोगों को नहीं है । जिनसे वह श्रीगीता ज्ञान ग्रहण करते हैं वह केवल शाब्दिक अर्थ बताते हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में यह ज्ञान किस तरह प्रासांगिक है इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है।
 राजनीति एक व्यापक शब्द है जिसका चुनावी राजनीति एक रूप है।  परिवार, रिश्तेदारी, व्यवसाय, नौकरी तथा खेल में भी बिना राजनीति के किसी को सफलता नहीं मिलती। जहां प्रतिफल की आशा है वह अपनायी जाने वाली नीति ही राजनीति है। पहले राजतंत्र था तो राजा अपने जीवन तक बना रहता था पर आजकल लोकतंत्र है और उसमें अदलाबदली होती रहती है। यह अदलाबदली चुनाव से ही होती है।  इस चुनावी राजनीति में धार्मिक पहचान वालों के शामिल होने  पर प्रश्न चिन्ह केवल ज्ञानी ही उठा सकते हैं पर उनको सुनने या पढ़ने वाली भीड़ तो अपने इन्ही शीर्ष पुरुषों के पीछे रहती है इसलिये कोई प्रभाव नहीं होता।
      देखा जाये तो वर्तमान काल में कोई देहधारी मनुष्य  हमारे देश में कोई धार्मिक रूप से लोकप्रिय या जनमानस में प्रतिष्ठत नहीं है। जब तक प्रचार माध्यम सीमित थे तब लोगों के सामने कथित रूप से अनेक महापुरुष विराजमान थे पर धीमे धीमे यह पता लगा कि इनमें बहुत लोग  पाखंडी और व्यापारी हैं। इन लोगों को देखकर हमें प्राचीन महापुरुषों की याद आती है जो सभी सुखों का त्यागकर सत्य की खोज में निकले। उन्होंने ज्ञान प्राप्त कर समाज को चिंत्तन शक्ति प्रदान की। उन्होंने राजसुख का इस तरह त्याग किया कि राजा लोग भी उनके सामने नतमस्तक हो गये।  अब इन नवीन धार्मिक पुरुषों से यह पूछने का साहस कौन कर सकता है कि वह किसलिये राजसी सुखों के चक्कर में पड़े हैं? इससे उनके समाज को कौनसा अध्यात्मिक लाभ होने वाला है? बहरहाल ज्ञान साधकों के लिये चुनावी राजनीति में सक्रिय होने की इन पेशेवर धार्मिक लोगों की कोशिश दिलचस्पी का विषय होती है। 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, March 20, 2014

चाणक्य नीति के आधार पर चिंत्तन-व्यक्ति की प्रकृत्ति के अनुसार उससे व्यवहार करें(chankya neeti ka aadhar par chinttan-vyakti ki prikriti ke anusar usse vyvahar karen)



      मनुष्य जीवन में सभी के सामने अनेक प्रकार के अन्य मनुष्य, विषय तथा प्रसंग आते हैं।  जब हमें किसी के समक्ष अपनी बात कहनी है तो पहले उसके व्यक्तित्व का मापतौल करना चाहिये।  किसी भी  व्यक्ति की प्रकृत्ति, विचार, छवि तथा गुणों को ध्यान में रखते हुए व्यवहार करना चाहिये।  सामान्यतः लोग अपनी बात कहने के लिये आतुर रहते हैं पर उनको इसका ज्ञान नहीं रहता कि किसके समक्ष कौनसी बात किस प्रकार कहना चाहिये।  कहना भी चाहिये कि नहीं!  साथ ही जब हम किसी दूसरे व्यक्ति से व्यवहार करते हैं तो यह नहीं  देखते कि  उसकी योग्यता और आचरण किस योग्य है?
      हम जीवन में दूसरे लोगों से अपेक्षाऐं करते हैं तो दूसरे भी हमसे अपनी अर्थपूर्ति के लिये अपनी दृष्टि रखा करते हैं।  आमतौर से लोग राजसी कर्म के लिये राजसी बुद्धि से एकदूसरे के समक्ष प्रस्तुत होते हैं।  ऐसे में सात्विक व्यवहार की अपेक्षा न तो दूसरे से करें न ही अनावश्यक रूप से स्वयं को धर्मभीरु प्रमाणित करने का प्रयास करना चाहिये।  सच बात तो यह है कि मनुष्य समाज में अधिकतर लोग आत्ममुग्ध होकर रहते हैं। वह सोचते हैं कि जैसे हम अच्छे या बुरे हैं वैसे ही दूसरे भी हैं।  यही कारण कि अधिकतर लोग हमेशा यह शिकायत करते फिरते हैं कि हमारे साथ दूसरे धोखा करते हैं।

दार्शनिक तथा चिंत्तक चाणक्य महाराज का कहना है कि

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लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।

मूर्खं छन्दोऽनृवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-लोभी को धन, अभिमानी को विनम्रता, मूर्ख की को इच्छापूर्ति और विद्वान को सत्य से जीता जा सकता है।

      हम अगर जीवन में मानवीय स्वभाव के मूल तत्व को समझ लें तो न कभी धोखा होगा न हृदय में निराशा को स्थान मिलेगा। जिन लोगों से हम अर्थलाभ की अपेक्षा करते हैं उन्हें अर्थ देकर ही संतुष्ट किया जा सकता है।  धन, पद तथा बाहुबल का अहंकार मनुष्य में न हो यह अस्वाभाविक बात है इसलिये अपने से अधिक योग्य व्यक्ति के साथ विनम्रता का व्यवहार करना ही लाभदायक रहता है। मूर्ख लोगों का काम ही दूसरों के काम  में बाधा डालना है अतः संभव हो तो उनकी इच्छा पूर्ति कर अपना पीछा छुड़ायें।  महत्वपूर्ण बात यह है कि जब हमें किसी से किसी विषय पर बौद्धिक सहायता लेनी हो तो उसे सच बताना चाहिये।
      अपने सर्वज्ञ होने का भ्रम कभी नहीं पालना चाहिये।  न ही यह मानना चाहिये कि हम स्वयं शक्तिशाली हैं या फिर शक्तिशाली लोगों से संपर्क है तो कोई हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।  जब हमारी इंद्रियां बाहर सक्रिय हों तो यह भी विचार करना चाहिये कि वह अनुकूल विषय, वस्तु या व्यक्ति से संपर्क कर रही हैं या प्रतिकूलता का पीछा कर रही हैं।  प्रतिकूल होने पर वह मनुष्य को भारी संकट में डाल देती हैं। इसलिये बोलते या काम करते समय सारी स्थिति पर विचार करना चाहिये।

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Monday, March 17, 2014

एकांत साधना का आनंद अलग ही है-होली 2014 की धुलेड़ी के अवसर पर विशेष लेख(ekant sadhyan ka aanand alag hi hai-holi2014 ki dhuledi ka avsar par vishesh lekh or hindi article oh holi festival2014



      अगर अंतर्मन सूखा हो तो बाहर पानी में कितने भी प्रकार के रंग डालकर उन्हें उड़ाओ क्षणिक प्रसन्नता के बाद फिर वही उष्णता घिर आती है।  बाह्य द्रव्यमय रंगों का रूप है दिखता है उसमें गंध है जो सांसों में आती है , एक दूसरे पर रंग डालते हुए शोर होता है उसका स्वर है, दूसरे की देह का स्पर्श है। पांचों इंद्रियों की सक्रियता तभी तक अच्छी लगती है जब तक वह थक नहीं जाती।  थकने के बाद विश्राम की चाहत! एक पर्व मनाने का प्रयास अंततः थकावट में बदल जाता है।
      आदमी बोलने पर थकता है, देखने में थकता है, सुनने में थकता है, चलते हुए एक समय तेज सांसें लेते हुए थकता है, किसी एक चीज का स्पर्श लंबे समय तक करते हुए थकता है। आनंद अंततः विश्राम की तरफ ले जाता है।  यह विश्राम इंद्रियों की  सक्रियता पर विराम लगाता है। यह विराम देह की बेबसी से उपजा है। देह की बेबसी मन में होती है और तब दुनियां का कोई नया विषय मस्तिष्क में स्थित नहीं हो सकता।  व्यथित इंद्रियां विश्राम करने  के समय स्वयं को सहमी लगती हैं। 
      योग साधकों की होली अंतर्मन में रंगों के दर्शन करते हुए बीतती है।  एकांत में आत्मचिंत्तन करने का सुअवसर पर मिलने पर अध्यात्मिक चक्षु, कर्ण, नासिका, मुख तथा मस्तिष्क  काम करने लगता है।  बाहर के रंग सूर्य की उष्मा से सूखने के साथ ही फीके होते हैं पर आंतरिक रंग ध्यान से उत्पन्न ऊर्जा से अधिक गहरे होते जाते हैं।  ऐसे में इस बात की अनुभूति होती है कि बाह्य सुख सदैव दुःख में बदलते हैं। जिस तरह हम करेला खाये या मिठाई अंततः पेट में कचड़े का ही रूप उनको मिलता है।  उसी तरह कानों से सुने गये स्वर, आंखों से देखे गये सुदंर दृश्य, नासिका से ली गयी सुगंध और हाथ से स्पर्श की गयी वस्तुओं का अनुभव अंततः स्मृतियों में बसकर कष्ट का कारण बनता है।  हमने वह खाया उसे फिर खाना चाहते हैं। हमने वह देखा फिर देखना चाहते हैं। हमने वह सुना फिर सुनना चाहते हैं। हमने गुलाब के फूल की खुशबू ली फिर लेना चाहते हैं। हमने सुंदर वस्तु को छुआ हम उसे फिर छूना चाहते हैं।  यह लोभ सताता है।   इसका कारण यह कि इन सुखों से प्राप्त विकार मन में बना हुआ है।  योग साधक अपनी साधना से विकार रहित हो जाते हैं। इंद्रियों के गुणों के पांचों विषय-रूप, रस, गंध, स्वर तथ स्पर्श-का सत्य जानते हैं।  इन गुणों के भी गुण वह समझते हैं। इसलिये वह किसी विषय को अपनी इंद्रियों के साथ  ग्रहण करते हुए भी उसके गुणों में लिप्त नहीं होते। योग साधक किसी विषय या वस्तु को छूते हैं, स्वर सुनते हैं, दृश्य देखते हैं, गंध सूंघते हैं, भोजन का स्वाद भी लेते हैं पर उससे प्राप्त सुख का तुरंत त्याग भी कर देते हैं ताकि वह अंदर जाकर दुःख का रूप न ले। अपने अभ्यास से वह विकारों को ध्यान से ध्वस्त कर देते हैं।
      मनुष्य की इंद्रियां बाहर सहजता से विचरण करती है। उन पर नियंत्रण करना कठिन है यह कहा जाता है।  योगसाधकों का इंद्रियों पर नियंत्रण सहज नहीं वरन् स्वभाविक रूप से होता है। इस संसार में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं। एक सहज योग दूसरा असहज योग। योग सभी करते हैं। सामान्य आदमी इंद्रियों के वश होकर सांसरिक विषयों से जुड़ता है जिससे वह अंततः असहज को प्राप्त होता है  पर योग साधक उन पर नियंत्रण कर उपभोग करता है और हमेश सहज बना रहता है।  सामान्य मनुष्य होने का अर्थ असिद्ध होना नहीं है और योग साधक को सिद्ध भी नहीं समझना चाहिये।  असहज योगी में नैतिक और चारित्रिक दृढ़ता का अभाव होता है। कोई योग साधक है उसके लिये यह दोनों शक्तियां प्रमाण होती हैं। अगर नहीं है तो इसका आशय यह है कि उसके अभ्यास में कमी है। अपने योग साधक होने का प्रमाण दूसरों को दिखाने की बजाय स्वयं देखना चाहिये।  हम भीड़ में जाकर अगर यह प्रमाण दिखायेंगे तो सामान्य लोग यकीन नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास ज्ञान नहीं होता। सहज योगियों के सामने प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि वह दूसरे योग साधक की चाल देखकर ही समझ लेते हैं।
      अध्यात्मिक चिंत्तन, अध्ययन, मनन और अनुसंधान एकांत का विषय है। सत्संग करना चाहिये ताकि दूसरे लोगों से भी अनुभव किये जा सकें।  आत्म प्रचार की भूख सभी को होती है पर योग साधक के कार्य उनके लिये प्रचार का काम स्वतः करते हैं। फिर पं्रचार कर प्रभावित भी किसे करना है? उन लोगों के सामने स्वप्रचार का क्या लाभ जिन्हें सांसरिक विषय भी अच्छे लगते हैं और त्यागियों के सामने प्रचार कोई लाभ भी नहीं है क्योंकि वह परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि हमें अपने को प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिये। सहज योग के लिये यह संभव है। जब संसार के सभी लोग असहज योग में रत हों तक सहज योगी को अपनी अनुभूतियां आनंद देती हैं। इनको बांटना संभव नहीं क्योंकि इनका न कोई रूप है न रंस है न ही स्वर है न गंध है न ही इसे स्पर्श किया जा सकता है।
      इस होली और घुलेड़ी पर एकांत चिंत्तन करते हुए हमने इतना ही पाया। इस अवसर पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठको को बधाई।
दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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Wednesday, March 12, 2014

रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख-पोल खुल जाने पर सब जगह थू-थू होती है(rahim darshan par aadharit chinttan lekh-pol khul jane par sab jagah thu-thu hotee hai)



      आधुनिक लोकतंत्र में जहां यह पूरे विश्व में एक अच्छी परंपरा बनी है कि लोग अपने देश, प्रदेश और शहर के लिये राज्य व्यवस्था की देखरेख करने वाले प्रमुख का चयन स्वयं ही कर सकते हैं वही इस तरह की बुरी प्रवृत्ति भी चालाक लोगों में आयी है कि वह जनमानस को अपने पक्ष में करने के लिये अनेक तरह के प्रपंच तथा स्वांग रचते हैं।  अपने प्रचार में वह स्वयं की छवि एक ईमानदार, समझदार तथा उच्च विचारों वाले व्यक्ति की बनाते हैं। इससे प्रभावित होकर लोग उन्हें अपना नायक भी मान लेते हैं पर जब बाद में पता चलता है कि वह तो पद पर बैठने के लिये एक बुत की तरह सज कर आये थे तब उनके प्रति निराशा का भाव पलता है। ऐसा भी देखा गया है कि अनेक लोगों ने अपनी छवि महान नायक की बनाई पर कालांतर में जब भेद खुला तो वह खलनायक कहलाने लगे।

कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि की धूरि।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह ठहरी हुई धूल हवा के रहने पर स्थिर नहीं रहती वैसे ही यदि किसी व्यक्ति के कुकृत्य या बुरे विचार का रहस्य खुल जाये तो उसकी सभी निंदा करते हैं।

      चुनावी वैतरणी पार करने के लिये प्रचार की नाव का सहारा सभी लेते हैं।  जो सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी हैं उनके प्रति लोग वैसे ही सहृदयता का भाव रखते हैं पर जिनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है उसके प्रति प्रचार देखकर ही अपना दृष्टिकोण बनाते हैं। यही वजह है कि जिन्होंने अपने जीवन में कोई परमार्थ नहीं किया होता वही उच्च पद की लालसा में प्रचार के माध्यम से अपनी छवि भव्य बनाने का प्रयास करते हैं।  कई बार प्रचार के दौरान ही उनकी पोल खुल जाती है पर अनेक लोग समाज की आंखें बचाकर अपना लक्ष्य ही पा लेते हैं।  ऐसे राजसी पुरुषों का निजी कार्यों तक सीमित रहने के कारण किसी को उनकी स्वार्थ वृत्ति का अनुभव नहीं होता पर सार्वजनिक पदों पर उनका चरित्र जाहिर होने लगता है तब लोग हताश हो जाते हैं।  वैसे तो पूरे विश्व में अनेक छद्म समाज सेवकों ने उच्च पद प्राप्त कर अपनी प्रतिष्ठा गंवाई है पर जिन्होंने बहुत प्रचार से लोकप्रियता अर्जित की पर अपना दायित्व निभाने में नाकाम रहे उन्हें उतने ही बड़े अपमान का भी सामना उनको करना पड़ा।
      उच्च पद पर बैठने का प्रयास करना बुरा नहीं है पर इसके लिये लोगों के साथ कोई ऐसी बात नहीं करना चाहिये जो बाद में निरर्थक सिद्ध हो। न ही ऐसे वादे करना चाहिये जिनको पूरा करना स्वयं को ही संदिग्ध लगे। लोगों को यह बात स्पष्ट रूप से समझाना चाहिये कि उनकी समस्याओं का वह निराकरण का पूरा प्रयास करेंगे। उच्च पद पर आने के बाद ईमानदारी से प्रयास भी करना चाहिये वरना लोगों में निराशा का भाव पैदा होता है जो कालांतर में घृणा में बदल जाता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Friday, March 07, 2014

तुलसीदास दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख-दूसरे का वैभव देखकर दिल न जलाएं(tulsidas darshan par aadharit chinttan-doosre ka vaibhav dekhkar dil n jalayen)




      सामान्य मनुष्य की इंद्रियां अपने समक्ष घटित दृश्य, उपस्थित वस्तु तथा व्यक्ति के साथ ही स्वयं से जुड़े विषय पर ही केंद्रित रहती है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य सहजता से बहिर्मुखी रहता है जिस कारण उसे जल्दी ही मानसिक तनाव घेर लेता है। अगर कोई व्यक्ति साधक बनकर योगाभ्यास तथा ज्ञानार्जन का प्रयास करे तो ंअंततः उसकी अंतर्चेतना जाग्रत हो सकती है।  बाहरी विषयों से तब उसका संपर्क सीमित रह जाता है।  बहिर्मुखी  भाव कभी थकावट तो कभी बोरियत का शिकार बनाता है।  यही कारण है कि जिन लोगों के पास धनाभाव है वह अधिक धनी को देखकर उसके प्रति ईर्ष्या पालकर कुंठित होते हुए स्वयं को रोगग्रस्त बना लेते हैं। उसी तरह धनी भी आसपास गरीबी देखकर इस भय से ग्रसित रहता है कि कहीं उसकी संपत्ति पर किसी की वक्रदृष्टि न पड़े। वह अपने वैभव की रक्षा की चिंता में अपनी देह गलाता है। आर्थिक विशेषज्ञ  कहते हैं कि हमारे देश में धनिकों की संख्या बढ़ी है तो स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात की जानकारी भी सार्वजनिक रूप से करते हैं कि देश में राजरोगों का प्रकोप बढ़ा है। हमारे समाज में चर्चायें अब अध्यात्म विषय पर कम संसार के भोगों पर अधिक होती है। इससे चिंतायें, ईर्ष्या तथा वैमनस्य का जो भाव बढ़ा है उसका अंाकलन किया जाना चाहिये।
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि
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पर सुख संपति देखि सुनि, जरहिं जे लड़ बिनु आगि।
तुलसीतिनके भागते, चलै भलाई भागि।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-दूसरे की सुख और संपत्ति देखकर जलने वाले बिना आग के ही जलते हैं। उनके भाग्य से कल्याण दूर भाग जाता है।
तुलसीके कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मस लागिहै, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में जो दूसरे की निंदा कर अपनी कीर्ति बढ़ाना चाहते हैं वह अज्ञानी हैं।  उनके मुख पर ऐसी कालिख लगती है वह बहुत धोने पर भी मिटती नहीं है।
     अपनी भौतिक भूख शांत करने के लिये जीवन बिताने वाले लोगों के लिये यह संभव नहीं है कि वह परोपकार का काम करें इसलिये अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये दूसरे की निंदा करते हैं।  अपनी बड़ी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की खींची लकीर को छोटा करने लगते हैं। यह अलग बात है कि पीठ पीछे ऐसे निंदकों के विरुद्ध भी जनमत बन ही जाता है।  उनके विरुद्ध लोग अधिक अनर्गल प्रलाप करते हैं।  सच बात तो यह है कि अगर अपनी प्रतिष्ठा बनानी है तो हमें वास्तविक रूप से दूसरों की भलाई करने का काम करना चाहिये न कि अपना बखान स्वयं कर हास्य का विषय बने।
      हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हमारे संकल्प के अनुसार ही हमारे लिये इस संसार का निर्माण होता है इसलिये न केवल अपने तथा परिवार के लिये बल्कि मित्र, पड़ौसी तथा रिश्तेदारों के लिये भी मंगलकामना करना चाहिये। यह संभव नहीं है कि हम अपने लिये तो सुखद भविष्य की कामना करें और दूसरे के अहित का विचार करें। ऐसे में यह उल्टा भी हो सकता है कि आप दूसरे का अनिष्ट सोचें उसका तो भला हो आये पर आपकी मंगल कामना करने की बजाय सुख की बजाय दुख चला आये। इसलिये अपने हृदय में सुविचारों को स्थान देना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, March 02, 2014

पतंजलि योग सूत्र-ध्यान से चित्त के क्लेश नष्ट होते हैं(dhyan se chitt ke klesh nasht hote hain-patanjali yog sootra)



            इस संसार में मनुष्य के जीवन में क्लेश और प्रसन्नता दोनों ही प्रकार के संयोग बनते बिगड़ते हैं। यह अलग बात है कि सामान्य मनुष्य सुख का समय आने पर सब कुछ भूल जाता है पर जब दुःख का समय आता है तब वह सहायता के लिये इधर उधर ताकता रहता है। क्लेश के समय वह विचलित होता है पर जिन लोगों को योग तथा ज्ञान का अभ्यास निरंतर हो उन्हे कभी भी इस बात की परवाह नहीं होती कि उसका समय अच्छा चल रहा है या बुरा, बल्कि वह हर हालत में सहज बने रहते हैं।
            हमारे देश में पेशेवर योग शिक्षकों ने प्राणायाम तथा योगासनों का प्रचार खूब किया है जिसके लिये वह प्रशंसा के पात्र भी हैं पर ध्यान के प्रति आज भी लोगों में इतना ज्ञान नहीं है जितनी अपेक्षा की जाती है। जिस तरह योगासन के पश्चात् प्राणायाम आवश्यक है उसी तरह ध्यान भी योगसाधना का एक अभिन्न अंग है। यह ध्यान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है जो कि मनुष्य के उस मन पर नियंत्रण करने में सहायक होती है जो प्रत्यक्ष उसकी देह का स्वामी होता है।  हमारे दर्शन के अनुसार अध्यात्म या आत्मा मनुष्य की देह का वास्तविक स्वामी होता है और योग विद्या से अपनी इंद्रियों का उससे संयोग कर जीवन को समझा जा सकता है। योगाभ्यास में ध्यान विद्या में पारंगत होने पर ही समाधि के चरम स्तर तक पहुंचा जा सकता है।

पतंजलि योग साहित्य मे कहा गया है कि
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ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
            हिन्दी में भावार्थ-सूक्ष्मावस्था को प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करना चाहिये।
ध्यानहेयास्तदूवृत्तयः।
            हिन्दी में भावार्थ-उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नाश करने योग्य हैं।

            जहां आसन और प्राणायाम प्रातः किये जाते हैं वहीं ध्यान कहीं भी  कभी भी लगाया जा सकता है। जहां अवसर मिले वहीं अपनी बाह्य चक्षुओं को विराम देकर अपनी दृष्टि भृकुटि पर केंद्रित करना चाहिये।  प्रारंभ में सांसरिक विषय मस्तिष्क में विचरण करते हैं तब ऐसा लगता है कि हमारा ध्यान नहीं लग रहा है जब इस पर चिंता किये बिना अंतदृष्टि पर नियंत्रण रखने से धीरे धीरे इस बात का अनुभव होता है कि उन विषयों का विष वहां जलकर नष्ट हो रहा है।  जिस तरह हम मिठाई खायें या करेला, हमारे उदर में वह कचड़े के रूप में ही परिवर्तित होता है।  उसी तरह कोई विषय प्रसन्नता तो कोई  क्लेश उत्पन्न करने वाला होता है, पर दोनों से  अंतर्मन में विष ही पैदा होता है। यह विष कोई भौतिक रूप से नहीं होता इसलिये उसे ध्यान  से ही जलाकर नष्ट किया जा सकता है।  हम विचार करें तो ध्यान के दौरान भी मनुष्य दैहिक अंगों की सक्रियता नहीं होती है। ध्यान अभौतिक होने के साथ ही  मानसिक स्थिति है। विषयों के संसर्ग से उत्पन्न विष ध्यान के माध्यम से जब नष्ट हो जाता है उसके बाद मनुष्य को अपनी देह तथा मन के हल्के होने की  सुखद अनुभूति होने लगती है। उसे ऐसा लगने लगता है जैसे कि जमीन पर चलने की बजाय  उड़ रहा है। देह में स्फूर्ति, मन में सहजता और विचारों में नवीनता का यह आनंद केवल ध्यान से ही मिलता है। ध्यान से मस्तिष्क की नसों में एक ऐसे सुख का आभास होता है जिसे शब्दों में बाहर वर्णन करने की बजाय मनुष्य उसे अनुभव करते रहने में ही आनंद अनुभव करता है। इससे होने वाले सुख की ध्यान करने वाला अपने अभ्यास के आधार पर ही अनुभव कर सकता है। जैसे जैसे यह अभ्यास बढ़ता जाता है वैसे वैसे आनंद की अनुभूति भी बढ़ती है।
            ध्यान की क्रिया से निवृत होने पर जब अपने देह की आंतरिक स्थिति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि देह में एक अजीब प्रकार की सहजता है, उससे पूर्व हम ऐसे खड़े थे जैसे कि मुट्ठियां भींची थीं।  मस्तिष्क में जो स्फूर्ति उत्पन्न होती है उससे यह समझा जा सकता है कि उससे पूर्व हमारे अंदर कितना तनाव था।  आजकल लोग भारी तनाव में जीते हैं।  उनको यह मालुम नहीं है कि सहजता होती क्या है? इतना ही नहीं कुछ लोग बाहर से सहज दिखने का प्रयास करते हैं पर मन में उनके भारी तनाव होता है।  मुख्य बात यह है कि हमारा  मस्तिष्क तनावग्रस्त रहता है इसका आभास तभी हो सकता है जब हम ध्यान की क्रिया में लिप्त होकर देखें।
            कार्यस्थल, यात्रा अथवा किसी समारोह में जाने पर हम वहां के वातावरण से अनेक तनाव उत्पन्न करने वाले तत्वों को अंदर समाविष्ट होने से तभी बचा सकते हैं जब ध्यान का अभ्यास तथा उसके परिणाम का ज्ञान हो। अगर हम कहीं काम करते बीच में थोड़ा ध्यान करें तो उसके बाद फिर काम पर लगें तो ऐसा लगता है कि वह अभी शुरु किया है। उस समय अपने अंगों को शिथिल होते देखें।  किसी कार्य में निरंतर लगे रहने पर थकावट हो जाये तो ध्यान लगायें, थोड़ी देर में ऐसा लगेगा कि हमारी देह में नयी स्फूर्ति का संचार हो रहा है। यात्रा में बैठे बैठे बोर हो रहे हैं तो वहां ध्यान लगायें।  किसी समारोह में जायें तो वहां मच रहा शोरशराबा अच्छा लगता है पर उससे हमारे मस्तिष्क में तनाव आता है। ऐसा लग रहा है हम प्रसन्न हो रहें हैं पर कहीं एकांत में जाकर ध्यान लगायें तो पता चलेगा कि हमारे अंदर कहीं तनाव था।
            सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि ध्यान एक आत्मकेंद्रित मनोरंजन का अभौतिक साधन भी है। सामान्य आदमी शहर के महल में रहता हुए बोर होता है  तो उसे गांव की सादगी आकर्षक लगती है। गांव में प्रकृति के करीब रहने वाले व्यक्ति को शहर आकर्षित करते हैं।  आदमी घर में बोर होता है तो कहीं पर्यटन करने चला जाता है।  यह मानव मन ही है जिसे कभी भजन तो कभी गजल सुनना अच्छा लगता है।  इससे चंचल मन कुछ देर बहलता है पर यह एक विषय से दूसरे विषय की तरफ जाने की वह प्रक्रिया है जिससे अध्यात्मिक  असहजता से मुक्ति पाना संभव नहीं है।  ध्यान की क्रिया करने पर सांसरिक विषयों से कुछ समय निवृत्ति की अनुभूति होती है और चित्त में एक नवीनता आती है। वैसे तो अधिकतर व्यवसायिक योग शिक्षक ध्यान की बात करते हैं पर उनका लक्ष्य योगसन और प्राणायाम की क्रियाओं पर ही रहता है।  इस विषय में भारतीय योग संस्थान के शिविरों में निष्काम भाव शिक्षकों ने हमेशा ही अच्छा काम किया है।  कम से कम इस लेखक ने योग विधा में ध्यान का महत्व भारतीय योग संस्थान के शिविरों में जाकर ही समझा है।





संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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