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Saturday, October 04, 2014

पतंजलि योग साहित्य के आधार पर चिंत्तन-नया विषय सामने आने पर विवेक संयम योग करें(naya vishay samane ane par vivek sanyam yog karen-A hindu hindi thohght article on patanjali yog sahitya)



            यह मानवीय स्वभाव है कि जब वह अपने सामने किसी दृश्य, व्यक्ति या वस्तु को देखता है तो उस पर अपनी तत्काल प्रतिक्रिया देने या राय कायम करने को तत्पर हो जाता है। इस उतावली में अनेक बार मनुष्य के मन, बुद्धि तथा विचारों में भ्रम तथा तनाव के उत्पन्न होता है।  इस तरह की प्रतिक्रिया अनेक बार कष्टकर होती है और बाद में उसका पछतावा भी होता है।
            वर्तमान समय में हमारे यहां युवा वर्ग में जिस तरह रोजगार, शिक्षा तथा कला के क्षेत्र में शीघ्र सफलता प्राप्त करने के लिये सामूहिक प्रेरणा अभियान चल रहा है उसमें धीरज से सोचकर काम करने की कला का कोई स्थान ही नहीं है।  लोग अनेक तरह के सपने तो देखते हैं पर उन्हें पूरा करने की उनको उतावली भी रहती है। यही कारण है कि सामान्य लोगों में  धीरज रखने की प्रवृत्ति करीब करीब समाप्त ही हो गयी है।  जिस कारण नाकामी मिलने पर अनेक लोग भारी कष्ट के कारण मानसिक संताप भोगते हैं।

पतंजलि योग में कहा गया है कि
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क्षणत्तक्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्।
            हिन्दी में भावार्थ-क्षण क्षण के क्रम से संयम करने पर विवेकजनित ज्ञान उत्पन्न होता है।

जातिलक्षणदेशैरन्यतानवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः।
            हिन्दी में भावार्थ-जिन विषयों का जाति, लक्षण और क्षेत्र का भेद नहीं किया जा सकता उस समय जो दो वस्तुऐं एक समान प्रतीत होती हैं उनकी पहचान विवेक ज्ञान से की जा सकती है।

            प्रकृति ने मनुष्य और पशुओं के बीच अंतर केवल विवेक शक्ति का ही रखा है।  मन, बुद्धि तथा अहंकार तो पशुओं में भी पाये जाते हैं पर अपने से संबद्ध विषय की भिन्नता, उनके  लक्षण तथा  उपयोग करने की इच्छा का निर्धारण करने की क्षमता केवल मनुष्य में ही है।  इसके लिये आवश्यक है कि जब मनुष्य के सामने कोई वस्तु, विषय या व्यक्ति दृश्यमान होता है तब उस पर संयम के साथ हर क्षण दृष्टि जमाये रखना चाहिये। यह क्रिया तब तक करना चाहिये जब तक यह तय न हो जाये कि उस दृष्यमान विषय की प्रकृत्ति, लक्षण तथा उससे संपर्क रखने का परिणाम किस तरह का हो सकता है?
            इसे हम विवेक संयम योग भी कह सकते हैं।  ऐसा अनेक बार होता है कि हमाने सामने दृश्यमान विषय के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती।  एक साथ दो विषय समान होने पर यह निर्णय लेना कठिन हो जाता है कि उनकी प्रकृति समान है या नहीं! अनेक अवसर पर किसी भी विषय, वस्तु तथा व्यक्ति की मूल प्रंकृत्ति, रूप तथा भाव को छिपाकर उसे हमारे सामने इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि वह हमें अनुकूल लगे जबकि वह भविष्य में उसके हमारे प्रतिकूल होने की आशंका होती है।
            इनसे बचने का एक ही उपाय है कि हमारे सामने जब कोई नया विषय, वस्तु या व्यक्ति आता है तो पहले उस पर बाह्य दृष्टि के साथ ही अंतदृष्टि भी लंबे क्षणों तक केंद्रित करें।  प्रतिक्रिया देने से पहले निरंतर हर क्षण संयम के साथ उस पर विचार करें। धीमे धीमे हमारा विवेक ज्ञान जाग्रत होता है  जिससे दृश्यमान विषय के बारे में वह ज्ञान स्वाभाविक रूप से  होने लगता है जो उसके पीछे छिपा रहता है। इस हर क्षण संयम रखने की प्रक्रिया को हम विवेक योग भी कह सकते हैं।     

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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