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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, August 31, 2013

मनु स्मृति-कामनाओं का त्याग करने वाला ही सन्यासी (kamnaon ka tyag karne wala sanyasi-manu smriti)



                        हमारे देश में धर्म के विषय पर कहीं चर्चा हो तो अनेक लोग बातें सुनने और कहने के लिये लालायित हो उठते हैं। हैरानी की बात है कि जितना धर्म के विषय में हमारे पौराणिक ग्रंथों में लिखा गया उससे अधिक अन्यत्र कहीं सामग्री नहीं मिलती।  यही कारण है कि हमारे देश में उससे पढ़कर रटने वाले धर्म संदेशों के प्रचार को एक व्यवसाय बना लेते हैं।  दूसरी बात यह भी है कि हमारे देश में लोगों का व्यवसाय कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग के साथ ही वस्तुओं का विक्रय कर अपना पेट पालना रहा है।  पुराने समय में लोगों को बाज़ार के छोटे होने के कारण  अपने धंधे आदि से फुर्सत अधिक रहती थी और यही कारण है कि उनके हृदय में संसार के विषयों के पश्चात् अज्ञात शक्ति की आराधना करने का समय निकल आता है। इसी कारण उनके अंदर धर्म के प्रति आस्थाओं का जन्म हुआ। सीधी बात कहें तो उनका अध्यात्म उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करता था। संसार की अज्ञात शक्ति के प्रति जिज्ञासा का कथित धर्म प्रचारकों ने खूब लाभ उठाया  औद्योगिक रूप से हमारा देश अभी शैशवकाल में ही है। ऐसे में छोटे शहरों और गांवों में लोगों के पास धर्म के प्रति रुचि अभी भी बरकरार है।  यह अलग बात है कि उनको ज्ञान देने वाले कथित गुरु उनकी जिज्ञासा शांत करने की बजाय अपनी चालाकी से कथायें सुनाकर या भजन गाकर मनोरंजन के माध्यम से उनके मन को प्रसन्न करते हैं। जहां तक ब्रह्मज्ञान का प्रश्न है उसके बारे में भ्रांत धारणाऐं प्रचलित हैं। कौन त्यागी, कौन सन्यासी और कौन तत्वाज्ञानी इसके बारे में आम लोगों अपने अपने गुरुओं के मतानुसार विचार करते हैं। 
         अनेक कथित ब्रह्मज्ञानी तो ऐसे हैं जो केवल संपत्ति संग्रह और शिष्यों के समूह का संचय कर प्रचार में प्रसिद्धि पाते हैं। इतना ही नहीं बाज़ार तथा प्रचार समूहों के लिये जो उपयोगी हैं वह सिद्ध है और जो नहीं है उसे कोई पूछता तक नहीं है। सच बात तो यह है कि त्यागी ही सच्चा सन्यासी होता है।  सन्यास का यह अर्थ कदापि नहीं है कि आदमी अपनी सांसरिक जिम्मेदारी से भागकर गेरुऐ वस्त्र पहन ले। गेरुए वस्त्र पहनकर भी जो कामनायें करता है वह सन्यासी नहीं है। इच्छाओं का त्याग करे वही ब्रह्मज्ञानी है और जो इच्छाओं की पूर्ति में ही लगा रहे उससे तो न ज्ञान लेना चाहिये और न उसे देना चाहिये।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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न जातु कामा कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूव एवाभिवर्धते।।
                        हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह आग में घी डालने से अग्नि प्रज्जवलित होती है उसी तरह एक इच्छा पूरी होने पर दूसरी स्वतः जाग्रत हो जाती है।
अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।
धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-अर्थ और काम में आसक्त लोगों के लिये धर्म का ज्ञान देने का कोई विधान नहीं है। धर्म के विषय में जिज्ञासा रखने वालों के लिये वेद ही सर्वोच्च प्रमाण हैं।
                        भारत में हिन्दू धर्म में साकार तथा निराकार दो प्रकार की भक्ति की धारा प्रचलित है पर अब तो यहां अहंकार की भक्ति की धारा भी बह रही है। अनेक गुरु स्वयं को भगवान का अवतार बताकर लोगों में अपने शिष्य बनाते हैं।  इतना ही नहीं जो उनसे व्यवसायिक लाभ उठाना चाहते हैं या वेतन पाते हैं वह हृदय से अपने स्वामी को भगवान नहीं मानते पर शिष्यों को प्रभावित करने के लिये वह इसी तरह का प्रचार करते हैं। अनेक बार तो ऐसा भी होता है कि धर्म व्यवसाय में लगे लोग एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने का प्रयास करते हुए समाज में वैमनस्य फैलाते नज़र आते हैं।  यह सब देखते हुए धर्म के प्रति जिज्ञासा रखने वाले लोग हमेशा ही ंसशय में रहते हैं।
                        इस संशय के निवारण के लिये लोगों को अपने ही धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते रहना चाहिये।  यही  ग्रंथ धर्म का प्रमाण हैं और अगर इनका ध्यान से अध्ययन किया जाये तो धर्म के साथ ही तत्वज्ञान की अनुभूति स्वतः होने लगती है।  सबसे बड़ी बात यह कि हमारे धर्मग्रंथ मानते हैं कि कामनाओं का त्याग करना ही सन्यास है और ग्रहस्थ होते हुए भी सन्यासी हुआ जा सकता हैं।  अतः भ्रम में आकर किसी को न तो गुरु बनाना चाहिये न गुरु में ईश्वर का रूप देखने की कामना करना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, August 24, 2013

यजुर्वेद के आधार पर संदेश-अपने लिये परमात्मा से मित्र दृष्टि मांगें (yajurved ke adhayar par sandessh-parmatma se apne liye mitra drishti mangen)



    हमारे देश में कुछ लोगों को प्रसिद्धि केवल इसलिये मिली है क्योंकि वह भारतीय धर्म ग्रंथों को बेकार का विषय मानते हुए उसके विरुद्ध प्रचार में लगे रहते हैं। इसके साथ ही कुछ लोग भारत में कर्मकांड के नाम पर होने वाली क्रियाओं को अंधविश्वास बताकर उनसे दूर रहने का अभियान चलाकर भी प्रसिद्ध हुए हैं। सच बात तो यह है कि अंग्रेजी पद्धति में सराबोर विद्वानों से यह आशा तो करना भी नहीं चाहिये कि वह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के मिलने वाली सामग्री का अध्ययन करें।  मुख्य बात यह है कि भारतीय धर्म को हिन्दू धर्म कहकर उन्होंने इसे सीमित बना दिया है।  सच बात तो यह है कि धर्म का कोई नाम नहीं होता। अगर हम श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करें तो उसमें कहीं भी हिन्दू धर्म का नाम नहीं दिया गया।  उसका सार यही है कि यदि आचरण में अगर नियम का पालन किया जाये तो वह धर्म है और स्वच्छंद व्यवहार अंततः अधर्म का रूप ले ही लेता है।  दूसरी बात यह भी कि श्रीगीता में कहीं भी अंधविश्वास वाली बात नहीं कही गयी है यह अलग बात है कि उसके विषय में सिद्ध होने का दावा करने वाले पेशेवर प्रवचनकर्ता उसके संदेशों का उपयोग चालाकी से अपने शिष्यों से अपनी सेवा  कराने के लिये उपयोग करते हैं। इसमें खासतौर से गुरुजनों की सेवा वाली बात आती है।  सारे गुरु केवल इसी इर्दगिर्द अपनी शिष्यों को घुमाते रहते हैं।
    उसी तरह वेदों का भी कुछ विद्वान जमकर विरोध करते हैं।  स्थिति यह है कि अनेक लोगों के सामने तो वेदों का नाम लेना भी गलती लगती है।  बहरहाल इस तरह समाज को भारतीय अध्यात्म से परे कर दिया है और इससे लोगों का मन इधर से उधर भटकता है और वह कृत्रिम तत्वों पर विश्वास रखने लगते हैं जिसे हमारे नवीन समाज सुधारक अंधविश्वास कहते हैं। अनेक लोगों ने तो अंधविश्वासों के विरुद्ध अभियान चलाकर नाम कमाया है पर ऐसे लोगों को यह समझ में नहीं आती कि विश्वास में धोखा हो सकता है और होता भी है पर परेशान हाल आदमी का मन जब भटकता है तो वह उसे कहीं भी ले जा सकता है।  हम लोगों से कहें कि इस पर विश्वास मत करो पर इससे पहले उनको यह बताना जरूरी है कि वह किस पर विश्वास करें? कथित अंधविश्वास विरोधी आदमी के मन का विज्ञान नहीं जानते। वह अगर यह मानते हैं कि समाज में कुछ लोग अंधविश्वासी हैं और उन्हेें रोकना जरूरी है र्तो स्वयं ही गलती पर हैं।  उन्हें कथित अंधविश्वास की जगह विश्वास की स्थापना करनी होगी। उसके बिना उनका अंधविश्वास विरोधी अभियान कभी सफल नहीं हो सकता।
यजुर्वेद में  कहा गया है कि
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दृते छंह मा।
ज्योवते संदृशि जीव्यासं ज्योवते सदृशि जीष्यासम्।।
       हिन्दी में भावार्थ-हे समर्थ! मुझे बलवान बनाओ। लोग मुझे तथा में उनको मित्र दृष्टि से देखें।
मनसः कामंमाकृतिं वाचः सत्यमशीप।
      हिन्दी में भावार्थ-मननशील अंतकरण की इच्छा और अभिप्राय जानने के साथ ही सत्य भाषण करूं।
         अगर समाज में जीवन के प्रति विश्वास कायम करना है तो उसे भारतीय अध्यात्म ज्ञान की धारा से जोड़ना ही होगा। यहां तक कि वेदों में जो संदेश आज भी प्रासांगिक हैं उनकी चर्चा सार्वजनिक रूप से करना ही होगी। वेदों में अनेक ऐसे मंत्र हैं जिनका जाप करने से भले ही प्रत्यक्ष लाभ न होता पर उनसे जो मानसिक दृढ़ता आती है उससे सांसरिक विषयों में उपलब्धि अवश्य होती है। अगर मनुष्य आचरण, विचार कार्यशैली में दृढ़ता नहीं होगी तो उसे सफलता नहीं मिल सकती।  वेदों में जो मंत्र हैं उनके जाप से यह संभव है कि मानसिक दृढ़ता आये जिसकी आजकल समाज को बहुत आवश्यकता है।   

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, August 10, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-सार्वजानिक राजनीति में सभी को साथ लेने की नहीं वरन सभी को साधने की जरुरत (economics of kautilya-rajneeti mein sabhi ko saath lekar chalane kee nahin varan sabhi ko sadhne kee jarurat-hindi article on indian politics)



      भारतीय अध्यात्म दर्शन  में न केवल प्रथ्वी के जीवन रहस्य को वर्णन किया गया है कि वरन् उसमें सांसरिक विषयों से पूर्ण सामर्थ्य के साथ ही लिप्त रहने के लिये पठनीय सामग्री भी शामिल है। भारतीय दर्शन मनुष्यों में जाति या भाषा के आधार पर भेद करने की बजाय स्वभाव, कर्म तथा प्रकृति की दृष्टि से उनमें प्रथकता का ज्ञान कराता है। भारतीय अध्यात्म दर्शन यह दावा कभी नहीं  करता कि उसके अध्ययन से सभी मनुष्य देवता हो जायेंगे बल्कि वह इस सत्य की पुष्टि करता है कि मनुष्यों में आसुरी और दैवीय प्रकृतियां वैचारिक  रूप में हमेशा मौजूद रहेगी।  इसके विपरीत भारत के बाहर से आयातित विचारधारायें सभी मनुष्य को फरिश्ता बनाने के दावे का स्वप्न मनुष्य मन में प्रवाहित कर उसे भ्रमित करती हैं।  हमारे देश में राजा की परंपरा समाप्त हो गयी तो उसकी जगह विदेशों से आयातित लोकतांत्रिक व्यवस्था की विचाराधाराओं ने यहां जड़े जमायीं।  हैरानी की बात है कि देश की प्रबंधकीय व्यवस्था का स्तर इतना गिर गया है कि लोग आज राजाओं के साथ ही अंग्रेजों की राज्य व्यवस्था को  याद करते हैं।   तय बात है कि आज के राजनीतिक प्रबंधकों से उनके मन में भारी निराशा व्याप्त है।  इसी निराशा का लाभ शत्रु राष्ट्र उठाकर सीमा पर नित्त नये खतरे पैदा कर रहे हैं।
       दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में चुनाव जीत कर ही कोई शासन प्राप्त कर सकता है।  यह भी पांच वर्ष की सीमित अवधि के लिये मिलता है।  फिर चुनाव जीतने के लिये भारी प्रचार का व्यय करने के साथ ही कार्यकर्ताओं को भी पैसा देना पड़ता है। परिणाम यह हुआ है कि भले ही लोग समाज सेवा के लिये चुनावी राजनीति करने का दावा करते हों पर उनके कार्य करने की शैली उनके व्यवसायिक रूप का अनुभव कराती है। स्थिति यह है कि कानून में निर्धारित  राशि से कई गुना खर्च चुनाव जीतने के लिये उम्मीदवार करते हैं।  चुनाव जीतन के बाद राजकीय पद पर बैठने पर भी उनकी व्यक्तिगत चिंतायें कम नहीं होतीं। कहा भी जाता है कि जिसे राजनीति का चस्का लग जाये तो फिर आदमी उसे छोड़ नहीं सकता। तात्कालिक रूप से अपना पद बचाये रखने के साथ ही  अगली बार चुनाव  जीतने का सोच चुनावी राजनीति में सक्रिय लोगों को परेशान किये रहता है। जहां तक प्रजा के लिये व्यवस्था के प्रबंध का प्रश्न है तो वह अंग्रेजों की बनायी लकीर पर फकीर की तरह चल ही रही है।  भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अपने कौशल के अनुसार राज्य चलाते हैं।  वह अपने सिर पर बैठे चुनावी राजनीति से आये शिखर पुरुषों को भी संचालित करते हैं।  राजनीतिक पदों पर बैठे लोगों को राजाओं जैसी सुविधा मिलती है तो वह प्रशासन तथा प्रबंधकीय स्थानों पर बैठे लोगों की कार्यप्रणाली पर अधिक दृष्टिपात नहीं करते। दिखाने के लिये भले ही वैचारिक द्वंद्व प्रचार माध्यमों में होता है पर मूल व्यवस्था में कभी कोई बदलाव नहीं होता।
    जहां तक राजनीति का प्रश्न है तो उच्च पदों पर पहुंचे लोगों की चाल भी आम आदमी की तरह ही होती है।  जिस तरह आम आदमी अपने राजसी कर्मों के निष्पादन के लिये चिंतित रहता है उसी तरह चुनाव राजनीति में भी केवल चुनाव जीतना ही मुख्य लक्ष्य रह जाता है। चुनाव जीतने के बाद पद मिलते ही अनेक लोग यह भूल जाते हैं कि निज जीवन और सार्वजनिक जीवन की राजनीति में अंतर होता है। राजनीति तो हर आदमी करता है पर सार्वजनिक जीवन की राजनीति करने वालों का समाज में मुख्य दर्जा प्राप्त होता है। प्रजा के धन से ही उनको अनेक सुविधायें मिलती हैं। वह समाज के प्रेरक और आदर्श होते हैं। यह अलग बात है कि चुनावी राजनीति में सक्रिय बहुत कम लोग अपनी सकारात्मक छवि समाज में बना पाते हैं।  राज्य के अंदर की व्यवस्था तो प्रशासकीय अधिकारी करते हैं पर सीमा के प्रश्न पर उनका नजरिया हमेशा ही अस्पष्ट रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि बाह्य विषयों पर  चुनावी राजनीति से पद प्राप्त व्यक्ति ही निर्णायक होता हैै।  ऐसे में जिस देश में राजनेता और प्रशासन में वैचारिक  अंतद्वंद्व हो वह बाहरी संकटों से कठिनाई अनुभव करते हैं।  दूसरी बात यह कि लोकतांत्रिक नेता सैन्य नीतियों पर कोई अधिक राय नहीं रख पाते।  खासतौर से जहां शत्रु राष्ट्र को दंडित करने का प्रश्न है तो लोकतांत्रिक देश के नेता अपनी झिझक दिखाते हैं। युद्ध उनके लिये अप्रिय विषय हो जाता है।  हम पूरे विश्व में जो आतंकवाद का रूप देख रहे हैं वह कहीं न कहीं लोकतांत्रिक नेताओं में युद्ध के प्रति अरुचि का परिणाम है।     
कौटिल्य महाराज अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि
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अरयोऽपि हि मित्रत्वं यान्ति दण्डोवतो ध्रुवम्।
दण्डप्रायो हि नृपतिर्भुनक्तयाक्रम्य मेदिनीम्।।
          हिन्दी में भावार्थ-दण्डग्रहण करने वाले के शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। दण्ड धारण करने वाला राज या राज्य प्रमुख आक्रमण कर इस धरती पर सुख भोग सकता है।
सस्तम्भयति मित्राणि ह्यभित्र नाशयत्यपि।
भूकोषदण्डैर्वृजति प्राणश्वाप्युपकारिताम्।।
       हिन्दी में भावार्थ-अपने मित्रों को स्थिर रखने के साथ ही शत्रुओं को मारने वाले, प्रथ्वी, कोष और दण्डधारक राजा या राज्य प्रमुख की दूसरे लोग अपने प्राण दाव पर लगाकर रक्षा करते हैं।
     परिवार की हो या देश की राजनीति, वही मनुष्य अपने आपको सफल प्रमाणित कर सकता है जो अपने मित्र की रक्षा तथा शत्रु का नाश करने का सामर्थ्य रखता है। मुख्य बात यह है कि जिस तरह पुरुष अपने परिवार की रक्षा के लिये अपने अंदर आक्रामक प्रवृत्ति बनाये रखता है उसी तरह उसे राज्य की रक्षा के लिये भी तत्पर रहना चाहिये।  राज्य प्रमुख चाहे सैन्य क्षमता से सत्ता प्राप्त करे या चुनाव से, राज्य करने के नियम बदल नहीं सकते। भारत में इस समय चारों  तरफ से सीमा पर खतरा व्याप्त है और हम शांतिपूर्ण राष्ट्र होने की दुहाई देते हुए उनसे बचने का मार्ग ढूंढते हैं तो कहंी न कहीं हमारे राजनीति कौशल के अभाव का ज्ञान उससे होता है। जब हमारे पास अपनी एक शक्तिशाली सेना है तब हमें अहिंसा या शांति की बात कम से कम अपनी सुरक्षा को लेकर करना ही नहीं चाहिये। शांति या अहिंसा की बात करना सार्वजनिक जीवन के राजनयिकों का नहीं है वरन यह सामाजिक तथा धार्मिक शीर्ष पुरुषों पर छोड़ देना चाहिये कि वह समाज को ऐसे संदेश दें।  राजकीय विषयों का निष्पादन हमेशा ही मानसिक दृढ़ता से होता है। वहां सभी को साथ लेकर चलने की नीति की बजाय सभी को साधने की नीति अपनानी चाहिये। कम से कम कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो यही कहता है।

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Sunday, August 04, 2013

महाराज विदुर ने भी दिया है समाजवाद का संदेश-हिन्दी चिंत्तन (maharaj vidur ne bhee diya hai samajwad ka sandesh-thought of socialism accourding hindu adhyatma)



     कहा जाता है कि हमारा देश दो हजार  वर्ष तक गुलाम रहा।  दरअसल हम इस गुलामी को राजनीतिक गुलामी तक ही सीमित मान सकते हैं। इस गुलामी का मुख्य कारण भारतीय क्षेत्र में राजसी पुरुषों की अज्ञानता को ही जिम्मेदारी माना जा सकता है। हम जब इस संसार की संरचना की बात करें तो इसके दो वह दो विषयों पर आधारित है-एक अध्यात्म तथा दूसरा सांसरिक कार्य।  सांसरिक कार्यों में भौतिकता का बोलबाला रहता है जो कि राजसी वृत्ति से ही किये जाते हैं। इसमें सात्विक प्रवृत्ति के लोग तो सांसरिक विषयों से केवल अपनी देह के पालन तक ही संबंध रखते हैं जबकि तामसी प्रवृत्ति के लोग ज्ञान के अभाव में नकारात्मक विचारों के साथ काम करते हैं। सांसरिक विषयों में प्रवीणता राजसी प्रवृत्ति के लोगों में होती है पर वह भी तब जब वह अपने कर्म की प्रकृत्ति तथा क्रिया की साधना का रूप समझें।  अगर हम दो हजार वर्ष की राजनीतिक गुलामी की बात करें तो इसके लिये देश के राजसी पुरुषों को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
         मुश्किल यह है कि हमारे देश के लोग दिखना तो सात्विक चाहते हैं पर उनका मन लिप्त राजसी विषयों में ही रहता है। फल भी वह राजसी चाहते हैं पर अपनी प्रकृत्ति सात्विक होने का दावा करते हैं। एक बात तय रही कि एक साथ दोनों प्रकृत्तियां मनुष्य में रह नहीं सकती और न ही एक कर्म दोनों प्रकृत्तियों का हो सकता है। राजसी कर्म राजसी विधि से ही होता है और उस समय अपनी मनस्थिति भी वैसी ही रखनी पढ़ती है।  हुआ यह है कि हमारे देश में सात्विक और तामसी प्रवृत्ति के लोगों की ही जमावड़ा रहा है।  सात्विक लोग अपनी देह के पालन तक ही सांसरिक विषयों से संबंध रखते हैं और तामसी प्रवृत्ति के लोग केवल भोग की प्रकृत्ति से कार्य करते हैं। तामसी प्रकृत्ति वाले येन केन प्रकरेण धन समेटकर अपनी तिजोरी तो भरना चाहते हैं पर समाज को देना कुछ नहीं चाहते।  ऐसे राजसी प्रकृत्ति के लोग कम ही होते हैं जो इस हाथ लेना और उस हाथ देना के सिद्धांत पर चलते हैं।

विदुरनीति में कहा गया है कि
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सहायक बन्धना ह्यर्थाः सहायकश्चार्थबन्धनाः।
अन्योन्बन्धनावेती विनान्योन्यं न सिध्यतः।
          हिन्दी में भावार्थ-धन की प्राप्ति के लिये सहायक चाहिये हैं और सहायकों को धन चाहिये।  यह दोनों परस्पर एक दूसरे के आश्रित हैं और आपसी सहायोग से किसी कार्य की सिद्ध हो सकती है।
संक्लिष्टकर्माणमतिप्रमादं नित्यानृतं चाट्ढभक्तिं च।
विसृष्टरागं पटुमानिनं चाप्येतान् न सेवेत नराधमान् षट्।।
       हिन्दी में भावार्थ-क्लेश कर्म, अत्यंत प्रमाद, असत्य भाषण, अस्थिर भक्ति, स्नेह भाव से रहित कार्य तथा अत्यंत चतुराई में लिप्त रहने वाले व्यक्ति की सेवा न करें क्योंकि यह अधम माने जाते हैं।

       राजसी कर्म में लगे इन्ही तामसी प्रवृत्ति के लोगों की वजह से ही देश को राजनीतिक गुलामी झेलना पड़ी हैं।  हमारे देश में अनेक राजा महाराजा हुए  पर बहुत कम ऐसे रहे जिनकी लोकप्रियता जनहित के कामों की वजह से हुई हो।  अधिकतर राजाओं ने अपनी आंतरिक व्यवस्थाओं पर पेशेवर ढंग अपनाने की बजाय परंपरागत प्रणाली अपनाई।  चाटुकारिता, प्रमाद तथा अहंकार के वशीभूत राजाओं ने अपनी व्यवस्था सामंतों और ज़मीदारों के भरोसे छोड़ दी। इन जमीदारों तथा सामंतों ने भी अपने राजाओं का अनुसरण कर जनता की उपेक्षा की। राज्य प्रबंधन करने वाले लोगों का लक्ष्य केवल राजा की रक्षा करना ही रह गया ताकि उनकी श्रेष्ठ स्थिति बनी रहे। यही कारण है कि बाहरी हमलों में प्रजा का एक बहुत बड़ा वर्ग इन राजाओं के साथ नहीं रहा।
       हम आज की स्थिति देखें तो कुछ अलग नहीं लगती। राजसी कर्म में लगे शिखर पुरुष आम जनता को भले ही देशभक्ति का पाठ पढ़ाते हैं पर विदेशी देशों के प्रति आकर्षण भी जनता को दिखाते हैं।  विदेशी विनिवेश तथा तकनीकी को लाकर देश को समृद्ध करने की बात करते हैं। विश्व के राजनीतिक पटल  परं भारतीय राजसी पुरुषों की छवि दृढ मानसिकता वाली नहीं मानी जाती।  तय बात है कि कहीं न कहंी उनके व्यक्तित्व में प्रकृत्ति तथा क्रिया साधना के बीच विरोधाभास दिखाई देता है।  हमारे देश में लोकतंत्र है और वैसे ही लोग जन प्रतिनिधि बनते हैं जैसी जनता होती है।  यकीनन हमारे देश में लोगों भी वैसे ही हैं जैसे कि यहां के राजसी पुरुष।
       मुख्य बात यह है कि जो लोग यह समझते हैं कि उनका काम समाज सेवा या उस पर नियंत्रण करना है उन्हें यह भी देखना चाहिये कि उसके लिये कौनसी क्रिया साधना होना चाहिये? समाज से कुछ लेना है तो उसे कुछ देना भी होगा। इतना ही देते हुए दिखना भी होगा।  अगर उस पर नियंत्रण करना है तो अपनी निश्चय तथा विचार दृढ़ भी रहना होगा। हम यहां यह भी कह सकते हैं कि विदुर महाराज राजनीतिक व्यवस्था के साथ ही समाजवाद के उस सिद्धांत के प्रतिपादक हैं जिसके लिये हमारे देश बुद्धिमान लोग विदेशी महापुरुषों के विचारों की सहायता लेते हैं।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, August 01, 2013

संत कबीर दर्शन-ज्ञान पढ़कर सुनाने वाले तीतर की तरह (sant kabir darshan-gyan padhkar sunane wale teetar ki tarah)



      हमारे देश में जैसे जैसे भौतिक समृद्धि के कारण जैसे जैसे विलासिता बढ़ रही है लोगों के शरीर टूट रहे हैं। कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है।  आलस्य, विलास तथा प्रमाद के भाव की समाज में प्रधानता हो तो लोगों के मानसिक रूप से समृद्ध होने की कल्पना करना ही निरर्थक है। स्थिति यह है कि लोगों के पास धन और विलासिता के ढेर सारे साधन है पर हार्दिक प्रसन्नता उनसे कोसों दूर रहती है। ऐसे में उनका मन उनको मनोरंजन के लिये इधर उधर दौड़ता है जिसका लाभ भारतीय धार्मिक ग्रंथों के वाचकों ने खूब उठाया है।
           वैसे तो हमारे यहां कथा और सत्संग की परंपरा अत्यंत पुरानी है पर भौतिक युग में पेशेवर धार्मिक वाचकों ने उसे मनोरंजन स्वरूप दे दिया है।  वह स्वयं ज्ञान पढ़कर दूसरों को सुनाते हैं।  मनोरंजन से ऊबे लोग उसे ही अध्यात्म का मार्ग समझते हुए  भीड़ की भेड़  बनकर ऐसे उपदेशकों को अपना गुरु बना लेते हैं।  स्थिति यह है कि लोगों को त्याग, दया और दान की प्रेरणा देने वाले यह उपदेशक अपनी कथाओं के प्रायोजन के लिये सौदेबाजी करते हैं।  यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन उपदेशकों को अपनी कथााओं के लिये अपने साथ ऐसे दल की व्यवस्था करनी होती है जैसे कि नाटक निर्देशक  करते हैं।  अपने साथ संगीत और नृत्य  कलाकार लेकर अपनी कथाओं के पात्रों का मंच पर नाटक की तरह प्रस्तुत कर  यह कथा वाचक खर्च भी करते हैं।  ऐसे में उनको अपने कार्यक्रमों के लिये व्यवसायिक प्रबंध कौशल का परिचय देना होता है।  देखा जाये तो अध्यात्म साधना एकांत का विषय है पर गीत संगीत तथा नृत्य के माध्यम से शोर मचाकर यह लोगों का मन वैसे ही हरते हैं जैसे कि मनोरंजन करना ही अध्यात्म हो।

संत प्रवर कबीर दास जी कहते हैं कि
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पण्डित और मसालची, दोनों सूझत नाहिं।
औरन को करै चांदना, आप अंधेरे माहिं।।
         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-पण्डित और मशाल दिखाने वाले दूसरों को प्रकाश दिखाते हैं, पर स्वयं अंधेरे में रहते हैं।
पण्डित केरी पोथियां, ज्यों तीतर का ज्ञान।
और सगुन बतावहीं, आपन फंद न जान।।
        सामान्य हिन्दी में भावार्थ-पण्डित पोथियों पढ़कर ज्ञानोपदेश करत हैं। उनका ज्ञान तीतर की तरह ही है जो दूसरे पक्षियों को ज्ञान देता पर स्वयं पिंजरे में रहता है।

          हमारा अध्यात्म अत्यंत समृद्ध है। देखा जाये तो हमारे अध्यात्म का सार श्रीमद्भागवत गीता में पूर्ण रूप से समाहित हैै। इस छोटे पर महान ग्रंथ का अध्ययन करने पर यह साफ लगता है कि उसमें वर्णित सदेशों से  प्रथक अन्य कोई सत्य हो ही नहीं सकता। कहा भी जाता है कि जिसने श्रीगीता का अध्ययन कर लिया उसे फिर अन्य किसी ग्रंथ से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है। हैरानी की बात है कि अपने आपको श्रीगीता सिद्ध बताने वाले उसके संदेश भी इतने विस्तार से बताते हैं कि सामान्य भक्तों के सिर के ऊपर से निकल जाते हैं।  उससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि लोग श्रीगीता के प्रवचन के समय ही प्रमाद कर अपनी बात से भक्तों को हंसाते हुए समझाते हैं।  प्रमाद राजसी कर्म का परिचायक है और स्वयं को सात्विक कहने वाले इन उपदेशकों को इससे बचना चाहिये।
      जिन लोगों को अधिक पुस्तकों से माथा पच्ची न करनी हो वह प्रातःकाल एक दो श्लोक ही गीता का पढ़ लिया करें।  उसका शाब्दिक अर्थ लेकर मन ही मन उसका चिंत्तन कर भावार्थ समझने का प्रयास करें।  आजकल सिद्ध गुरु मिलना कठिन है। कथित गुरु अपने आश्रमों के विस्तार और भक्तों के संग्रह को ही अपना लक्ष्य बनाते हें।  अतः भगवान श्रीकृष्ण को अपना गुरु मानते हुए श्रीगीता का अध्ययन करें तो यकीन मानिए स्वतः ही अध्यात्म का ऐसा ज्ञान प्राप्त होगा जो कथित बड़े संतों के लिये भी दुर्लभ है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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