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Saturday, August 31, 2013

मनु स्मृति-कामनाओं का त्याग करने वाला ही सन्यासी (kamnaon ka tyag karne wala sanyasi-manu smriti)



                        हमारे देश में धर्म के विषय पर कहीं चर्चा हो तो अनेक लोग बातें सुनने और कहने के लिये लालायित हो उठते हैं। हैरानी की बात है कि जितना धर्म के विषय में हमारे पौराणिक ग्रंथों में लिखा गया उससे अधिक अन्यत्र कहीं सामग्री नहीं मिलती।  यही कारण है कि हमारे देश में उससे पढ़कर रटने वाले धर्म संदेशों के प्रचार को एक व्यवसाय बना लेते हैं।  दूसरी बात यह भी है कि हमारे देश में लोगों का व्यवसाय कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग के साथ ही वस्तुओं का विक्रय कर अपना पेट पालना रहा है।  पुराने समय में लोगों को बाज़ार के छोटे होने के कारण  अपने धंधे आदि से फुर्सत अधिक रहती थी और यही कारण है कि उनके हृदय में संसार के विषयों के पश्चात् अज्ञात शक्ति की आराधना करने का समय निकल आता है। इसी कारण उनके अंदर धर्म के प्रति आस्थाओं का जन्म हुआ। सीधी बात कहें तो उनका अध्यात्म उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करता था। संसार की अज्ञात शक्ति के प्रति जिज्ञासा का कथित धर्म प्रचारकों ने खूब लाभ उठाया  औद्योगिक रूप से हमारा देश अभी शैशवकाल में ही है। ऐसे में छोटे शहरों और गांवों में लोगों के पास धर्म के प्रति रुचि अभी भी बरकरार है।  यह अलग बात है कि उनको ज्ञान देने वाले कथित गुरु उनकी जिज्ञासा शांत करने की बजाय अपनी चालाकी से कथायें सुनाकर या भजन गाकर मनोरंजन के माध्यम से उनके मन को प्रसन्न करते हैं। जहां तक ब्रह्मज्ञान का प्रश्न है उसके बारे में भ्रांत धारणाऐं प्रचलित हैं। कौन त्यागी, कौन सन्यासी और कौन तत्वाज्ञानी इसके बारे में आम लोगों अपने अपने गुरुओं के मतानुसार विचार करते हैं। 
         अनेक कथित ब्रह्मज्ञानी तो ऐसे हैं जो केवल संपत्ति संग्रह और शिष्यों के समूह का संचय कर प्रचार में प्रसिद्धि पाते हैं। इतना ही नहीं बाज़ार तथा प्रचार समूहों के लिये जो उपयोगी हैं वह सिद्ध है और जो नहीं है उसे कोई पूछता तक नहीं है। सच बात तो यह है कि त्यागी ही सच्चा सन्यासी होता है।  सन्यास का यह अर्थ कदापि नहीं है कि आदमी अपनी सांसरिक जिम्मेदारी से भागकर गेरुऐ वस्त्र पहन ले। गेरुए वस्त्र पहनकर भी जो कामनायें करता है वह सन्यासी नहीं है। इच्छाओं का त्याग करे वही ब्रह्मज्ञानी है और जो इच्छाओं की पूर्ति में ही लगा रहे उससे तो न ज्ञान लेना चाहिये और न उसे देना चाहिये।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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न जातु कामा कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूव एवाभिवर्धते।।
                        हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह आग में घी डालने से अग्नि प्रज्जवलित होती है उसी तरह एक इच्छा पूरी होने पर दूसरी स्वतः जाग्रत हो जाती है।
अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।
धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-अर्थ और काम में आसक्त लोगों के लिये धर्म का ज्ञान देने का कोई विधान नहीं है। धर्म के विषय में जिज्ञासा रखने वालों के लिये वेद ही सर्वोच्च प्रमाण हैं।
                        भारत में हिन्दू धर्म में साकार तथा निराकार दो प्रकार की भक्ति की धारा प्रचलित है पर अब तो यहां अहंकार की भक्ति की धारा भी बह रही है। अनेक गुरु स्वयं को भगवान का अवतार बताकर लोगों में अपने शिष्य बनाते हैं।  इतना ही नहीं जो उनसे व्यवसायिक लाभ उठाना चाहते हैं या वेतन पाते हैं वह हृदय से अपने स्वामी को भगवान नहीं मानते पर शिष्यों को प्रभावित करने के लिये वह इसी तरह का प्रचार करते हैं। अनेक बार तो ऐसा भी होता है कि धर्म व्यवसाय में लगे लोग एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने का प्रयास करते हुए समाज में वैमनस्य फैलाते नज़र आते हैं।  यह सब देखते हुए धर्म के प्रति जिज्ञासा रखने वाले लोग हमेशा ही ंसशय में रहते हैं।
                        इस संशय के निवारण के लिये लोगों को अपने ही धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते रहना चाहिये।  यही  ग्रंथ धर्म का प्रमाण हैं और अगर इनका ध्यान से अध्ययन किया जाये तो धर्म के साथ ही तत्वज्ञान की अनुभूति स्वतः होने लगती है।  सबसे बड़ी बात यह कि हमारे धर्मग्रंथ मानते हैं कि कामनाओं का त्याग करना ही सन्यास है और ग्रहस्थ होते हुए भी सन्यासी हुआ जा सकता हैं।  अतः भ्रम में आकर किसी को न तो गुरु बनाना चाहिये न गुरु में ईश्वर का रूप देखने की कामना करना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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